तभी शिवजी के गण नारदजी के पास आकर बैठ गए। ठिठोली करते हुए नारदजी से कहते हैं, जरा अपना चेहरा तो देखिए। हमें तो लगता है, यह कन्या आप ही को वरेगी।
नारदजी और ज्यादा प्रसन्न हो गए। सोचने लगे, आज तो विश्वमोहिनी से विवाह हो ही जाएगा। जाकर पहली पंक्ति में बैठ गए।
देखिए, जब मन-मस्तिष्क पर काम चढ़ता है तो साधु भी साधु नहीं रहता। आचरण से गिर जाता है। जो थोड़ी देर पहले तपस्यारत था, वह नारी के सौंदर्य पर मोहित होकर विवाह के स्वप्न देखने लगा।
जब विश्वमोहिनी आई तो देखा, इसका तो मुँह बंदर जैसा है। वह पूरी पंक्ति ही छोड़ दूसरी पंक्ति में चली गई।
यहाँ सूत्र की बात यह निकलती है कि जिस पंक्ति का नेतृत्व करनेवाले का चेहरा विकृत हो, वह पंक्ति की पंक्ति खाली हो जाएगी। इसलिए इस बात का जरूर ध्यान रखें कि आप कैसे नेतृत्व को स्वीकार रहे हैं।
जिनके चेहरे अच्छे न हों, जिनका आचरण विकृत हो, उनके पीछे कभी खड़े मत होना। उनको नेतृत्व मत सौंपना।
विश्वमोहिनी आगे बढ़ी तो देखा, अति सुंदर रूप में भगवान् विष्णु भी दूल्हा बने बैठे हैं। सारी माया ही तो उन्हीं की रची हुई थी। आगे बढ़ी और भगवान् को वरमाला पहना दी।
नारदजी ने देखा तो सन्न रह गए। सोचने लगे—मेरे साथ धोखा कर खुद ले गए। शुरू हो गए भगवान् पर। आप कपटी हो, दूसरे का सुख नहीं देख सकते। समुद्र मंथन में लक्ष्मी लेकर खुद भाग गए, कौस्तुभ मणि ले गए, शिवजी को बावला बना दिया, देवताओं को ठग लिया, दैत्यों को ठग लिया। जो समझ में आता है, करते रहते हो। किसी का सुख देखा नहीं जाता आपसे।
भगवान् सबकुछ सुनकर भी मुसकराते रहे। किसी ने कहा—बहुत हो गई भगवान्। नारद क्या बोले जा रहे हैं?आप कुछ कहते नहीं? भगवान् ने कहा—इस मुँह से स्तुति तो बहुत सुनी, अपशब्द आज पहली बार सुन रहा हूँ। बोलने दीजिए इसे।
देखिए, कभी-कभी भगवान् को भक्त की गालियाँ भी अच्छी लगती हैं।
भगवान् मुसकराते हुए सुन रहे हैं, नारदजी सतत बोले जा रहे हैं। जब बहुत बोल लिये तो भगवान् ने सोचा, बहुत हो गया, अब इसको हकीकत बता ही दी जाए।
तब तुलसीदासजी ने लिखा—
‘जब हरि माया दूरी निवारी। नहीं तह रमा राजकुमारी।’
भगवान् ने जैसे ही माया हटाई तो वहाँ न राजा था, न राजसभा। न लक्ष्मीजी पास थीं, न विश्वमोहिनी। सबकुछ खाली हो गया।
बस भगवान् खड़े और नारदजी खड़े। नारदजी को ध्यान आ गया कि यह तो माया थी और मैं माया में डूब गया।
नारदजी भगवान् के चरणों में गिरकर क्षमा माँगते हुए कहते हैं, मुझसे बड़ा अपराध हुआ भगवान्। अब मैं क्या करूँ।
भगवान् ने कहा—नारदजी, यह सब मेरी ही माया थी। आपके भीतर उत्पन्न हुए अहंकार को धोने के लिए मैंने यह माया रची थी।
आगे भगवान् कहते हैं—नारदजी, आप सचमुच संत हैं। मैंने जो कुछ आपके साथ किया, इसके लिए मुझे श्राप भी नहीं दे रहे? नारदजी बोले—मैं श्राप देता हूँ। आपने मुझे बंदर की सूरत देकर मेरा तिरस्कार करवाया है तो एक दिन बंदर ही आपकी मदद करेंगे।
आपने मुझे मनुष्य नहीं बनाया, एक दिन आप मनुष्य बनेंगे और जिस प्रकार मैं स्त्री के विरह में दुःखी हुआ, वैसे ही आप भी होंगे। भगवान् ने कहा, आपने मुझे शाप दिया। मैं वरण भी करता हूँ, परंतु आपको शाप देना नहीं आया।
आपने कहा, मैं मनुष्य का अवतार लूँगा, यदि कहते जीवन में कभी मनुष्य नहीं बन पाओगे तो मुझे बहुत बड़ा संकट आ जाता। इस प्रकार आपने तो शाप नहीं, वरदान दे दिया।
दूसरा, आपने कहा बंदर मदद करेंगे। यदि आप कहते कि बंदर काम बिगाड़ेंगे तो समझ में आता, लेकिन वे तो मेरे काम आएँगे। यह भी शाप नहीं, वरदान हो गया।
तीसरा, आपने कहा—स्त्री के विरह में दुःखी होऊँगा। इसका मतलब विवाह तो मेरा होगा ही। अगर आप कहते कि विवाह ही नहीं होगा तो भी मैं संकट में आ जाता। आपने तो हर श्राप के पीछे मुझे वरदान दे दिया है। मैं तो आपका आभारी हूँ।
नारदजी बोले—भगवान्, जो भी हुआ, उसके लिए क्षमा चाहता हूँ। आप तो यह बताइए कि मैंने जो पाप किया है, उसका निवारण कैसे होगा? तब भगवान् कहते हैं, आप शंकरजी के सतनाम जपिए। ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय का जप कीजिए। आपका श्राप कट जाएगा।
‘नारायण, नारायण’करते हुए नारदजी विदा होते हैं।
शिवजी पार्वतीजी को नारदजी के शाप की कहानी सुना रहे हैं। देखिए, हमारे जीवन में कई ऐसी घटना नारदजी जैसी घट जाती हैं। हम जो चाहते हैं, वह होता नहीं और भगवान् अपनी माया से कुछ और करा देता है; क्योंकि अंत में भगवान् हमारा हित देखना चाहता है।
क्षणिक हमको ऐसा लगता है कि हम पश्चात्ताप कर रहे हैं, हम भगवान् के प्रति आक्रोश व्यक्त कर रहे हैं। आज नारद के प्रसंग से सुनें।
4. मनु-शतरूपा : रामजन्म का चौथा कारण मनु और शतरूपा का बताया है। मनु और शतरूपा हम मनुष्यों के पहले माता-पिता हैं। जब उन्होंने राजकाज कर लिया तो सबकुछ छोड़ जंगल में चले गए। दोनों ने तपस्या कर भगवान् को प्रसन्न किया। भगवान् ने कहा—बोलिए, आप क्या माँगते हैं? मनुजी तो कुछ नहीं बोले, लेकिन शतरूपाजी थोड़ी चतुर थीं, बोलीं—मुझे आपके जैसा पुत्र चाहिए।
भगवान् ने कहा—मेरे जैसा पुत्र कहाँ से लाऊँगा? इसके लिए तो स्वयं मुझे ही आना पड़ेगा। कहा जाता है, उसके बाद मनु-शतरूपा दशरथ और कौशल्या बने और भगवान् ने राम के रूप में इनके यहाँ जन्म लिया।
5. प्रतापभानु : मनु-शतरूपा के बाद शिवजी ने पार्वतीजी को प्रतापभानु की कथा सुनाई। प्रतापभानु एक राजा था। उसका छोटा भाई हरिमर्दन था। प्रतापभानु अच्छा राजा था, लेकिन उसके मन में काम, क्रोध, लोभ एक साथ आ गए और उसे ऐसा लगा कि मेरी सत्ता सतत बनी रहे। उसने कई राजाओं को पराजित किया था। एक राजा दुष्ट था। उसने साधु का वेश धरकर प्रतापभानु को ठग लिया। बोला—मैं तुम्हारे लिए ऐसा यज्ञ करूँगा कि उसके बाद तुम्हारी सत्ता सतत बनी रहेगी।
प्रतापभानु उसकी बातों में आ गया। दुष्ट राजा ने यज्ञ किया और उसमें ब्राह्मणों को मांसाहार करा दिया। प्रतापभानु को शाप मिला कि अगले जन्म में तुम राक्षस बनोगे और कोई देवपुरुष तुम्हारा वध करेगा। यही प्रतापभानु अगले जन्म में रावण बना और राम के हाथों उसका वध हुआ।
रामजन्म के पहले तुलसीदासजी ने रावण के जन्म का वर्णन किया है। बहुत विस्तार से तो नहीं किया, पर सूक्ष्म बात रावण के लिए लिखी है। तुलसीदासजी तो कथाकार थे। जानते थे कि राम के प्रकाश के आने के पहले रावण के अंधकार की अनुभूति होना आवश्यक है।
जब तक अंधकार की अनुभूति नहीं होगी, तब तक प्रकाश का महत्त्व समझ में नहीं आता। इसलिए रावण जन्म के बारे में भी बताया है। चलिए, जानते हैं रावण जन्म का कब-कैसे हुआ।
रावण के पिता विश्रवा एक संत और माँ कैकसी राक्षसी थीं। चूँकि रावण के नाना सुमाली का भगवान् विष्णु से वैर था, इसलिए अपनी पुत्री को विश्रवा ऋषि के पास भेजा। दोनों पति-पत्नी हुए और संतान उत्पत्ति का क्रम शुरू हुआ। बड़े पुत्र के रूप में रावण का जन्म हुआ। बचपन में एक दिन माँ ने रावण से पूछा—बेटा, क्या बात है, तू कुछ परेशान सा लगता है।
रावण ने कहा—माँ, मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। मैं प्रातःकाल जब उठता हूँ तो पिता मुझसे कहते हैं, शास्त्र का अध्ययन कर। मुझ पर क्रोधित होते हैं कि तेरा शरीर बलिष्ठ होता जा रहा है। तुझे शब्द स्मरण में नहीं रहते, तू मंत्रों का उच्चारण ठीक से नहीं कर पा रहा है और तेरी भुजाओं पर शस्त्र के निशान हैं। तू देर रात तक क्या करता है? तेरा आचरण ठीक नहीं दिखता। तू ब्राह्मण का पुत्र है। तुझे रात को जल्दी सोना चाहिए और सुबह जल्दी उठना चाहिए।
इधर जब मैं नाना के पास आता हूँ तो वे मुझे देर रात तक शस्त्र विद्या सिखाते हैं। नाना कहते हैं दुनिया शस्त्र से जीती जा सकती है और पिता कहते हैं, शास्त्र से जीती जाएगी। नाना कहते हैं दुनिया को झुकाओ, पिता कहते हैं दुनिया के सामने झुक जाओ। तो सच क्या है माँ? आखिर मुझे करना क्या है?मेरा जीवन क्या है? कोई कहता है शास्त्र, कोई कहता है शस्त्र। रावण इसी दुविधा में पाला गया और इसीलिए दुराचारी हुआ।
जिन घरों में जिन संतानों के साथ, जिन बच्चों के साथ माता और पिता का आचरण, व्यवहार, नीति, शिक्षा अलग-अलग होगी, वे बच्चे एक दिन रावण बन जाएँगे। एक पक्ष कुछ और सिखा रहा था, दूसरा कुछ और सिखा रहा था। अबोध बालक भ्रमित होकर जीवन-पथ से भटक गया।
जो माता-पिता अपने बच्चों को अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति का खिलौना और शस्त्र बना लेते हैं, वे उनका हित नहीं कर सकते। माँ कैकसी और नाना सुमाली ने रावण को एक बात सिखा दी कि तेरा जन्म किसी विशेष उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हुआ है। तुझे हमने विष्णु से युद्ध करने के लिए तैयार किया है। तेरा अपना कोई उद्देश्य नहीं है। तुझे सिर्फ राक्षस वंश की महत्त्वाकांक्षा को पूरा करना है।
सदाचरण तेरा आवरण होना चाहिए, तेरा स्वभाव नहीं। अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए अपना हो या पराया, उसका वध भी करना पड़े तो कर देना। जो नहीं मिले, उसे लूटकर हासिल कर लेना। माँ ने सिखाया और रावण ऐसा ही आचरण सीख गया।
नाना ने बार-बार रावण को सिखाया, तुझे तपस्या से शस्त्र अर्जित करना है, शक्ति अर्जित करनी है। जा, तपस्या कर। रावण तपस्या करने चला गया। देवी-देवताओं को प्रसन्न कर लिया। भगवान् प्रसन्न हो गए तो पूछा—बोल दास-दासी, हाथी-घोड़े, राज्य, महल, धन, संपत्ति, शस्त्र क्या चाहिए तुझे? रावण ने कहा—ये सबकुछ तो मेरे पास पहले से ही हैं, तुम क्या दोगे? नहीं भी दोगे तो छीनकर प्राप्त कर लूँगा। देना ही है तो एक वर दे दो।
भगवान् ने कहा—बोल क्या चाहता है? रावण बोला—‘हम काहु के मरहि न मारे।’ अर्थात् मैं किसी के मारे न मरूँ। भगवान् ने कहा—तथास्तु।
उसी समय रावण को अहंकार आ गया और अहंकार आते ही उसकी जुबान फिसल गई। झट से बोल पड़ा—‘बानर मनुज जाती द्वयी मारे।’ मनुष्य और वानर को छोड़कर मुझे कोई न मार सके। भगवान् ने फिर कहा—तथास्तु। देखिए, अहंकार वाणी को ध्वस्त कर देता है। रावण को यह बाद वाली पंक्ति बोलने की आवश्यकता ही नहीं थी, लेकिन अहंकार ने उससे बुलवा दी। पहली माँग में तो तथास्तु कहकर भगवान् भी उलझ गए थे, परंतु दूसरी माँग के साथ ही रावण ने स्वयं ही अपनी मौत तय कर दी। भले ही कोई मनुष्य या वानर उसे नहीं मार पाया, लेकिन भगवान् राम के बाणों से वह नहीं बच पाया।
भगवान् से वर मिलने के बाद तो मानो रावण की विजय-यात्रा चल पड़ी। चारों दिग्पाल जीत लिये। यम, कुबेर, वरुण, इंद्र किसी को नहीं छोड़ा। जो सामने आता, रावण समाप्त करता जाता। इसी यात्रा में एक दिन यमराज के पास पहुँच गया। यमराज भागकर ब्रह्माजी के पास गए, बोले—ब्रह्माजी, मुझे बचाइए। ये तो मृत्यु को जीत लेगा।
रावण ने जब-जब भी युद्ध किया और ऐसा मौका आया कि सामने वाला पराजित नहीं हो रहा तो रावण या तो अपने दादा पुलस्त्यको ले आता या ब्रह्माजी को। बार-बार रावण बड़े लोगों को बीच में ले आता। यही रावण पद्धति है, जो आज तक चल रही है। आज भी लोग काम निपटाने के लिए कुछ बड़े लोगों को बीच में डाल देते हैं। और इसके लिए सबसे अच्छा क्षेत्र माना जाता है राजनीति।
एक दिन रावण ने दुनिया जीत ली। विश्वविजेता बन गया और घोषणा कर दी कि जाओ राक्षसो, इस धरती पर जहाँ कहीं भी सौंदर्य हो, जो भी सुंदर स्त्री, जो भी धन, जो भी सत्ता पसंद आए, हमारे लिए लेकर आओ। आज के बाद सारे संसार की संपत्ति, सारी सुंदरियाँ रावण की अमानत हैं। नीति और नैतिकता कुछ नहीं होती। आज से वही होगा, जो रावण तय करेगा।
फिर क्या था। टूट पड़े रावण के लोग। धरती काँपने लगी, पहाड़ बीच में टूट गए, समुद्र की दिशाएँ बदल गईं। वनों में शेरों की दहाड़ बंद हो गई, हाथी चिंघाड़ना भूल गए। चारों ओर रावण का आतंक फैल गया। ऋषि-मुनि परेशान हो गए। जिसको चाहे, उसको उठा लेता था रावण। कोई सुरक्षित नहीं था। स्त्री होना अभिशाप बन गया था। कब असुर उठा ले जाएँ, कोई भरोसा नहीं था।
नारी के प्रति इस प्रकार की भावना रखने के कारण ही कई बार वह नारी शक्ति से शापित भी हुआ। पार्वतीजी के प्रति अपराध किया तो शाप मिला। मायावती से शापित हुआ, देवहुति से शापित हुआ। यहाँ तक कि अपनी बहू के प्रति भी घोर अपराध कर शाप भोगना पड़ा।
कई लोग आज भी सोचते और कहते हैं कि सीताजी का अपहरण करने के बाद रावण चाहता तो उनके साथ दुर्व्यवहार कर सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। वे यह भूल जाते हैं कि रावण शापित था। रावण ने अपने ही भाई की होने वाली पत्नी रंभा के साथ बलात्कार किया था। तब उसे शाप मिला था कि आज के बाद किसी भी स्त्री की इच्छा के विपरीत उसे स्पर्श करेगा तो उसके सौ टुकड़े हो जाएँगे। इसलिए वह सीताजी को स्पर्श नहीं कर पाया था।
भगवान् राम रावण को इसीलिए मारने आए थे कि उन्होंने कहा था, जिसने मातृशक्ति का इतना बड़ा अपमान किया हो, जो रिश्तों को खा गया हो, जो अपनी बहन को विधवा बना दे, जो अपनी बहू का शील भंग कर दे, जो अपनी माता समान पार्वतीजी को भोगने की आकांक्षा करने लगे, उसके नाश के लिए मुझे आना ही पड़ेगा। मैं केवल एक सीता के लिए नहीं गया था। मैंने समूची मातृशक्ति को उसका सम्मान और गौरव लौटाने के लिए इस दुष्ट से संघर्ष किया था।
शीर्ष पर जाकर जब कोई भूल करता है तो पतन होना ही है। विश्वविजेता रावण अपनी ही भूल के कारण लगातार नीचे गिरता गया और एक दिन श्रीराम के हाथों मारा गया। हमारे साथ भी ऐसा होता है। हम कितनी ही ऊँचाइयाँ हासिल कर लें, अगर आचरण से गिर गए, अहंकार से घिर गए तो पतन की ओर जाना ही है। इसलिए आचरण की श्रेष्ठता बनाए रखिए।
यही रावण की कथा है, जो हमें अच्छे-बुरे, सत्य-असत्य और धर्म-अधर्म की सही परिभाषा और उनके परिणाम बताती है।
यहीं से तुलसीदासजी कथा को अयोध्या की ओर ले जाते हैं, जहाँ राजा दशरथ के घर भगवान् राम का जन्म होता है। एक बार फिर याद कर लें। यह रामकथा शिवजी पार्वतीजी को सुनाते, याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजी को, कागभुशुंडीजी गरुड़जी को, तुलसीदासजी संतों को सुनाते हैं और वही कथा इस पुस्तक के माध्यम से आप पढ़-समझ रहे हैं।