भाग-2
अयोध्या कांड
आप-हम लोग धन्य हैं कि भारत की भूमि पर पैदा हुए और हमारे पास श्रीरामचरितमानस जैसा दिव्य ग्रंथ है।
श्रीरामचरितमानस के रूप में तुलसीदासजी ने हमको एक ऐसा साहित्य दिया है, जिसमें वेद की गहराई है, पुराणों के संदेश हैं, उपनिषदों का विचार है और जो अपने आप में इतिहास है। इसकी प्रत्येक पंक्ति में भविष्य की पुकार है।
एक-एक पंक्ति संदेश देती है कि हमारी नेकियाँ किसमें हैं, हमारे सिद्धांत क्या हों, परिवार में हम कैसे रहें। इसके प्रत्येक प्रसंग के साथ सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया है। दृष्टांत के साथ सिद्धांत बताने वाला यह अद्भुत साहित्य है, जिसमें तुलसीदासजी ने हमें परिवार के राम और हमारे हनुमान दिए हैं।
एक बार फिर याद कर लीजिए। हमारे पास चार प्रमुख शास्त्र हैं। रामायण, महाभारत, गीता और श्रीमद्भागवत। रामायण हमें जीना सिखाती है, महाभारत रहना सिखाती है, गीता करना और भागवत मरना सिखाती है। रामकथा की भाषा हृदय की भाषा है। यह हमें बताती है कि जीवन को जीना कैसे है।
यहाँ बात रामायण या रामकथा की की जा रही है। वाल्मीकि रामायण को ही तुलसीदासजी ने रामचरितमानस के रूप में प्रस्तुत किया है। सात कांड या सौपानों के इस ग्रंथ का दूसरा सोपान है अयोध्या कांड। हर कांड अथवा भाग का एक-एक सूत्र है। बाल कांड का सूत्र था सहजता। अर्थात् हमारे संपूर्ण जीवन में सहज भाव बना रहे।
अयोध्या कांड का सूत्र है—सत्य। अर्थात् जीवन में सत्य का क्या महत्त्व है, जीवन में सत्य को किस प्रकार उतारा जाए?
पहले भाग यानी बाल कांड में आपने पढ़ा कि भगवान् राम का जन्म हुआ, शिक्षा-दीक्षा हुई, गुरु विश्वामित्र और भाई लक्ष्मण के साथ वन में गए, ताड़का आदि राक्षसों का विनाश किया और जनक-पुत्री सीता से विवाह कर फिर अयोध्या लौट आए।
चलिए, अब अयोध्या कांड में प्रवेश करते हैं। इस सोपान का सार यह है कि विवाह कर अयोध्या लौटने के बाद श्रीराम के राजतिलक का निर्णय होता है। मंथरा के कहने पर कैकेयी निर्णय पलट देती है और भगवान् राम को चौदह बरस के लिए वनवास पर जाना पड़ता है।
भगवान् अयोध्या छोड़ वन के लिए प्रस्थान कर देते हैं। पुत्र वियोग में दशरथजी अपने प्राण त्याग देते हैं। ननिहाल से भरतजी आते हैं, रामजी को मनाने वन में जाते हैं, उनसे वापस अयोध्या चलने की विनती करते हैं। भगवान् पिता की आज्ञा पालन का धर्म बताते हुए भरतजी को अपनी चरण-पादुका देते हैं और भरतजी लौटकर नंदीग्राम में पादुका को स्थापित करते हैं।
अयोध्या कांड लिखते समय तुलसीदासजी ने इसके आरंभ में ही लिख दिया—
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि।
बरनऊँ रघुवर विमल जसु, जो दायक फल चारि॥
यह चार फल देने वाला कांड है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। गुरु को याद करके अयोध्या कांड का आरंभ किया है। तुलसीदासजी जानते थे, कथा में अब जीवन जिस मोड़ से गुजरेगा, जिन स्थितियों से अब जिंदगी चलने वाली है, वहाँ गुरुकृपा की बड़ी आवश्यकता होगी। इसलिए गुरु को याद कर कथा के दूसरे भाग को प्रारंभ किया गया है।
चलिए, कथा में प्रवेश से पहले एक छोटी सी कहानी पढ़-समझ ली जाए। यह यहाँ तो प्रासंगिक है ही, आपके जीवन में भी काम आएगी।
एक फकीर को रोज-रोज स्वप्न आता था कि नदी के ऊपर एक पुल है, उस पर एक सैनिक खड़ा हुआ है और उस सैनिक के नीचे खजाना गड़ा है। पहले दिन तो उसने इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब दूसरे दिन भी वही सबकुछ दिखा तो वह परेशान हो गया। खजाना तो खजाना ही होता है। वह तो फकीर को भी बुरा नहीं लगता।
तीसरे दिन फिर वही सपना आया तो फकीर ने काम-धाम छोड़ा और नदी की ओर चल दिया। नदी मिल गई, वैसा ही पुल मिल गया और देखा तो सैनिक भी खड़ा था। फकीर ने सोचा, सपना सच होता दिख रहा है और वहीं आसपास मँडराने लगा। वहाँ खड़े सैनिक ने फकीर से पूछ लिया—क्या ताक-झाँक कर रहे हैं आप? कहीं पुल से कूदकर आत्महत्या करने का इरादा तो नहीं है?
फकीर बोला—नहीं भाई, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है। बात यह है कि मैंने एक सपना देखा है और मेरा सपना गलत नहीं हो सकता। बाकी की सारी बातें एकदम सही दिख रही हैं। वैसी ही नदी, वैसा पुल और एक सैनिक के रूप में तुम खड़े हो। सपने की आगे की बात यह है कि तुम्हारे नीचे खजाना गड़ा है।
वह सैनिक हँसते हुए बोला—किस चक्कर में पड़े हो बाबाजी? तीन दिन से मुझे भी एक सपना आ रहा है, और यदि सच होता तो मैं पागल हो गया होता। मेरा सपना भी सुन लो।
मुझे सपने में एक गाँव दिखता है। नाम बताया तो फकीर को लगा, यह तो मेरे ही गाँव का नाम है। उस गाँव में मुझे एक फकीर मिलता है। नाम बताया तो फकीर ने सोचा यह तो मेरा ही नाम है। और वह फकीर जहाँ बैठकर तपस्या कर रहा है, उसके नीचे खजाना गड़ा है। सुनकर फकीर चौंक गया।
सैनिक बोला—जब मुझे भी ऐसा सपना आ रहा है तो क्या मैं भागता फिरूँ? फकीर उल्टे पाँव भागा कि चलो खजाना तो मेरे नीचे ही गड़ा हुआ है।
उस फकीर को खजाना मिला या नहीं, यह अलग बात है, परंतु हमारे काम की बात है यह कि हर आदमी को एक सपना आ जाता है।
सपना यही कह रहा है कि कहीं मत दौड़ो। परमात्मा को मिलना है, उस खजाने को मिलना है तो घर में मिल जाएगा, दुकान में मिल जाएगा, दफ्तर में मिल जाएगा। आप जहाँ खड़े हैं, वहाँ मिल जाएगा। इसको पाने के लिए व्यर्थ यहाँ-वहाँ दौड़ मत लगाइए। जो चीज नहीं मिलने की होगी, वह कहीं नहीं मिलेगी।