जीना सिखाती है रामकथा

देखिए, आपसे ज्यादा चतुर तो बच्चे हो गए। इसलिए अगर आप चाहें कि बच्चों को मनोविज्ञान तरीके से समझाएँ तो नहीं समझने वाले। उनको व्यावहारिक ज्ञान भी देना होगा।

विश्वामित्रजी भी भगवान् को व्यावहारिक ज्ञान देते हैं। जाओ राम, वाटिका में घूम आओ। शायद गुरु जानते थे कि वहाँ सीताजी पूजन कर रही हैं। रामजी जाते हैं। सचमुच सीताजी पूजन कर रही होती हैं। यहाँ पहली बार दोनों एक-दूसरे को देखते हैं। दोनों को बोध होता है। 

ब्रह्मांड की बड़ी दिव्य घटना थी यह। सखियाँ सीताजी से कहती हैं। अरे सीते, तुमने आँखें बंद कर लीं। यह झलक तो देखो। सीताजी मन-ही-मन पुजारी बने भगवान् के दर्शन कर रही थीं। 

सचमुच भगवान् के दर्शन इसी तरह करने चाहिए। जब किसी मंदिर में जाएँ तो थोड़ी देर प्रतिमा को देखने के बाद आँखें बंद कर लीजिए।

 रामजी लौटकर आते हैं और गुरुदेव विश्वामित्र को सबकुछ बता देते हैं। कहते हैं—गुरुदेव, वाटिका में राजा जनकजी की बेटी भी आई थी। मुझे उनका सौंदर्य बहुत प्रिय लगा। अपने गुरु को सबकुछ बता दिया। इसीलिए तुलसीदासजी को लिखना पड़ा—‘राम कहा सब कोसुक पाही। सरल सुभाउ छुअत छल नाही॥’ अर्थात् श्रीराम बहुत सरल स्वभाव के हैं। 

विश्वामित्र मन-ही-मन सोचते हैं—चलो, भगवान् का मिलन होने जा रहा है। जिस घटना के लिए जनकपुर आए हैं, वह घटना जन्म लेने जा रही है। सीताजी रामजी के लिए संसार में आई हैं, अब उनको प्राप्त भी होंगी।

 उसी समय राजा जनक के मन में सीताजी के स्वयंवर का खयाल आता है। धनुष-यज्ञ का आयोजन रख सभी को सूचना दी जाती है। गुरु विश्वामित्र और भाई लक्ष्मण के साथ श्रीराम भी पहुँचते हैं। 

जब चलने लगे तो लक्ष्मणजी ने बड़ी अच्छी बात कही—‘लखन कहा जस भाजन सोई। नाथ कृपा तब जा पर होई।’ अर्थात् गुरु से कहते हैं, जिस पर आपकी कृपा होगी, जिस पर आपका आशीर्वाद होगा, उसी को विजय प्राप्त होगी। यह धनुष उसी से टूटेगा। 

जनकजी के दरबार में पहुँचते हैं। आसपास के समस्त राजा पधारे थे। कहते हैं कि रावण भी पहुँचा था। शर्त थी, जो यह शिवधनुष तोड़ देगा, सीताजी उसी को वरेंगी।

 एक-एक कर सारे राजा प्रयास कर गए, पर सफल नहीं हो सके। धनुष को तोड़ना तो दूर, उसे हिला भी नहीं सके। जिस रावण ने खेल-खेल में कैलास उठा लिया था, वह भी उस धनुष को हिला तक नहीं पाया। सारे पराक्रमी राजा मस्तक झुकाए बैठ गए। मन-ही-मन सोच रहे थे, अब कौन बचा है, जो यह धनुष उठा सकता है! 

अब तक भगवान् राम चुपचाप बैठे हैं। विश्वामित्रजी इशारा करते हैं, जाइए, अपना पराक्रम दिखा दीजिए। तब भगवान् उठते हैं। देखिए, कितना अच्छा प्रसंग है। जब तक गुरु की आज्ञा नहीं मिली, रामजी नहीं उठे।

 भगवान् कहते हैं—जीवन भर गुरु की आज्ञा का पालन करते रहो। सही समय आने पर गुरु स्वयं ही इशारा कर देते हैं। आप तो निमित्त मात्र हैं, कर्ता तो वह ईश्वर ही होता है। 

शिवधनुष अहंकार का प्रतीक है और अहंकार बीच में से नहीं टूटता। अहंकार के धनुष को बीच में से पकड़कर तोड़ने का प्रयास करेंगे तो नहीं टूटेगा। रामजी आए, देखा और दोनों तरफ से पकड़कर बीच में से इस प्रकार तोड़ दिया मानो कोई साधारण लकड़ी तोड़ी हो। जैसे ही धनुष टूटा, बाकी सारे राजाओं का अहंकार धरा रह गया। धनुष टूटा और सीताजी ने श्रीराम के गले में जयमाला डाल उनका वरण कर लिया। भगवान् ने अहंकार तोड़ा और हमें भी सिखाया कि अहंकार तोड़ने के बाद ही दांपत्य में प्रवेश करना चाहिए। 

बड़े सूत्र की बात है। भगवान् कहते हैं, परिवार बसाना हो, गृहस्थी चलानी हो तो सबसे पहले अपने अहंकार का धनुष तोड़ दीजिए। ‘तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा’ शिवजी का धनुष तोड़ दिया गया, यह सुनकर उसी समय परशुरामजी वहाँ प्रकट हो गए। थे तो साधु, परंतु बात-बात पर क्रोधित हो जाते थे। शिवजी के भक्त थे, क्षत्रियों का संहार कर चुके थे और अपने आपको क्षत्रिय-द्रोही मानते थे। 

क्रोध में लाल हुए परशुरामजी चिल्लाने लगे, ‘कौन है इस धरती पर, जिसने यह धनुष तोड़ा है?’ लक्ष्मणजी उग्र स्वभाव के थे। किसी का इस तरह चिल्लाना उनकी सहन-सीमा से बाहर था। 

आगे आते हुए कहने लगे—‘चिल्लाओ मत…’ हम भी क्षत्रिय के बेटे हैं। धनुष देखा तो खेलने लग गए। ऐसा कैसा धनुष है यह, जो खेल-खेल में ही टूट गया। बार-बार इस तरह चिल्लाकर मेरे भाई श्रीराम का अपमान मत कीजिए। एक क्षत्रिय को धनुष दिखा तो उसके धर्म के अनुसार उसे छू लिया और वह टूट गया। 

परशुरामजी का क्रोध और बढ़ता गया। दोनों के बीच लंबी बहस होती है। काँपने हुए परशुरामजी को लक्ष्मणजी कहते हैं—महाराज, हम आपके वेश का लिहाज कर रहे हैं। आपने यह जो जटा रख रखी है, जो तिलक लगा रखा है, हम इसको नमन करते हैं, इसका सम्मान करते हैं। वरना हम भी क्षत्रिय की संतान हैं। आपकी हर चुनौती स्वीकार है हमें। 

बात बढ़ती देख भगवान् राम आगे आए, परशुरामजी को प्रणाम करते हुए अपना परिचय दिया और बोले—यह तो बालक है महाराज, इसे क्षमा कर दीजिए। जब परशुरामजी का क्रोध शांत होता है। 

देखिए, वाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस के कई प्रसंगों में भेद है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान् का विवाह हुआ और जब बारात लौट रही थी, उस समय परशुरामजी आते हैं। जंगल में थोड़ी-बहुत खटपट होती है और वाल्मीकिजी ने लिख दिया। तुलसीदासजी तो रचना कवि थे। दृश्यों को कैसे लिखना है, यह अच्छे से जानते थे। इसलिए वे परशुरामजी को जंगल में न जाते हुए भरे दरबार में लाए।

जब भाई लक्ष्मण की ओर से रामजी क्षमा माँगते हैं, तब कुछ शांत होते हुए परशुराम कहते हैं, ठीक है, परंतु बताओ, धनुष तोड़ा किसने है? तब भगवान् कहते हैं, मेरी ओर देखिए, मेरे हृदय में देखिए महाराज। यह धनुष मैंने तोड़ा है। परशुराम कहते हैं, मैं तब मानूँगा जब तुम मेरे इस धनुष और मेरे इस फरसे को ले लोगे। भगवान् कहते हैं, ठीक है। भगवान् तो प्रयास भी नहीं करते और परशुराम के शस्त्र भगवान् की ओर खिंचे चले आते हैं। 

परशुरामजी समझ जाते हैं, मुझसे ही भूल हुई है। भगवान् का अवतार हो चुका है। रामजी को प्रणाम करते हैं। देखिए, दोनों एक-दूसरे से क्षमा माँग प्रणाम करते हैं। परशुरामजी कहते हैं—मैंने अज्ञानवश बहुत अनुचित कहा है। आप दोनों भाई क्षमा के मंदिर हैं, मुझे क्षमा कर दो। उपस्थित समस्त राजाओं के बीच परशुरामजी ने क्षमा माँगी और भगवान् ने उन्हें क्षमा कर दिया। 

लक्ष्मणजी भगवान् को देखकर मुसकराते हैं, परशुरामजी को देखकर मुसकराते हैं और परशुरामजी प्रणाम करके चले जाते हैं। जिस परशुरामजी से सारे राजा डरते थे, वे परशुराम रामजी से क्षमा माँगकर चले गए। 

तुलसीदासजी ने रामजी की लीला रची ही ऐसी। इस लीला को पढ़ने के बाद लोगों को लगा, लगभग पाँच सौ वर्ष पहले, जिस समय हमारे धर्म पर संकट आया हुआ था, मनुष्य को मनुष्य होना अपराध सा लगता था, सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं रह गई थी। 

पता नहीं कब हमारा धर्म बदल दिया जाए, कब हमारी स्त्री उठा ली जाए, कब वध कर दिया जाए। यवनों के शासनकाल में जब हम इन्हीं आशंकाओं से डरा करते थे, तब तुलसीदासजी ने रामचरितमानस लिखी, राम को नायक बनाकर प्रस्तुत किया और आम जन को भरोसा दिलाया कि डरो मत। एक नायक तुम्हारे जीवन में आया है। वह तुम्हें बल देगा, आत्मबल देगा। 

सीताजी द्वारा भगवान् राम के गले में वरमाला पहनाने के बाद जनकजी सूचना देते हैं कि विधिवत् दोनों का विवाह कराया जाए। अयोध्या में सूचना भेजी जाती है, बारात आती है और भगवान् का विवाह होता है। चारों भाइयों का विवाह एक साथ कर दिया जाता है। सात फेरे होते हैं। जनकराज बड़े प्रसन्न होकर बारात को अयोध्या के लिए विदा करते हैं। रामचरितमानस में इस प्रसंग का बड़ा सुखद वर्णन आता है। 

भगवान् का विवाह होता है। यहाँ भक्त, भक्ति और भगवान् तीनों एक साथ मिलते हैं। और अब दुर्गुणों के मरने की तैयारी होती है। जिस क्षण हमारी भक्ति भगवान् से मिलती है, उसी क्षण हमारे भीतर के रावण, राक्षस, दुर्गुण समाप्त होने की तैयारी में आ जाते हैं। 

बारात लौटकर अयोध्या आती है। सीता सहित चारों बहुओं के स्वागत में सजकर अयोध्या नगरी भी दुलहन का रूप ले लेती है। यहीं पर बालकांड का समापन होता है। 

फलश्रुति : समापन से पहले बाल कांड की फलश्रुति बताई गई है। फलश्रुति का मतलब है, इसको सुनने-पढ़ने से क्या फल प्राप्त होता है। कहा गया है कि बाल कांड की कथा जो लोग सुनेंगे या पढ़ेंगे, वे सर्वदा सुख पाएँगे। 

जीवन में हर कोई सुख चाहता है। बाल कांड की कथा वह सुख देती है, जो हमको भीतर तक शांत करता है। प्रेम के साथ जो इसे गाएँगे, सुनेंगे और पढ़ेंगे, यश और मंगल के धाम श्रीराम उनके जीवन में उत्साह भरेंगे, सुख भरेंगे।

 आगे कथा दूसरे भाग यानी अयोध्या कांड में प्रवेश करती है, जिसमें बड़ा संघर्ष आता है। भगवान् राम का बालपन तो माता-पिता के साए में, उम्र के कच्चेपन में बीत गया, अयोध्या कांड में उनकी परीक्षाओं का दौर चलता है। 

यह भाग हमें बताता है कि परिवार में से ही परिवार का कोई सदस्य बाहर कर दिया जाए और फिर भी वह परिवार बचा ले, उसका नाम है राम। अपनों से संघर्ष करना पड़े और प्रेम बचा ले, उसका नाम है राम। 

अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए कितने दृढ, कठोर और साहसिक निर्णय लिये रामजी ने, यह अयोध्या कांड में जाने पर ही पता चलता है। इसलिए जरूर पढ़िए श्रीरामचरितमानस का दूसरा सोपान—अयोध्या कांड।

Advertisement

Share your thoughts on this article...

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s