जीना सिखाती है रामकथा

शिव-पार्वती विवाह 

सतीजी से दांपत्य टूटने के बाद भगवान् शंकर समाधि में चले गए। इधर राक्षसों के अत्याचार से देवता परेशान हो गए। इन्हें कैसे मारा जाए। ज्ञात हुआ कि शिव और पार्वतीजी की संतान ही उनका वध कर सकती है। 

देवता शिवजी से विवाह का आग्रह करते हैं। शिवजी द्वारा इनकार के बाद भी देवताओं ने जिद पकड़ ली। नहीं महाराज, हमारे कल्याण के लिए विवाह तो करना ही पड़ेगा। 

इधर पार्वतीजी बड़ी हुईं। गुरु नारदजी के कहने पर उन्होंने तपस्या करते हुए शिवजी को पति के रूप में माना। इधर देवताओं ने शिवजी से कहा—महाराज, जो होना था, हो गया। अब विवाह का प्रस्ताव मान लीजिए। 

शिवजी मान गए, विवाह तय हो गया और हिमाचलराज के यहाँ बारात जाने की तैयारी शुरू हो गई।

 देखिए, जब किसी की बारात ले जाना हो तो उसके लिए कुछ ठीक-ठाक रिश्तेदारों की भी जरूरत होती है। विष्णुजी और अन्य देवताओं ने शिवजी से पूछा—महाराज, आपके रिश्तेदार कौन और कहाँ हैं? उन्हें बुला लीजिए। 

कैलाश पर फकीर की तरह विहार करनेवाले भोलेनाथ का अपना कोई रिश्तेदार तो था नहीं। फिर भी बारात में कोई तो चाहिए। शिवजी ने कहा—आप सभी इतना आग्रह कर रहे हैं तो बुलवा लेते हैं बरातियों को। 

अपने गणों को आदेश दिया—बुला लाओ रिश्तेदार। गण गए और सारे भूत-पिशाचों को बारात का आमंत्रण दे आए। ऐसी अद्भुत बारात बनी कि जिसने देखा, दंग रह गया। 

किसी का मुख नहीं था, किसी की टाँग नहीं, किसी का हाथ नहीं, किसी का धड़ नहीं। शिवजी स्वयं भी जब दूल्हा बनकर आए तो पूरे शरीर पर भस्म लपेट ली, जटा बना ली, एक मृगचर्म लपेट लिया और गले में दो-चार साँप लपेट लिये। देवताओं को मन-ही-मन चिंता हुई कि यह कैसी बारात है? कहीं बिना दुलहन के न लौटना पड़ जाए। 

बारात आगे बढ़ी तो देवताओं को लगा, दूल्हे शिव का आगे चलना ठीक नहीं। देवराज इंद्र, विष्णुजी आदि देवता आगे-आगे चलने लगे। भगवान् भोलेनाथ जो दूल्हा थे और बाकी बारात को पीछे कर दिया। 

जैसे ही दुलहन पार्वतीजी के घर में बारात पहुँची, हिमाचलराज के लोगों ने आगे-आगे चल रहे देवताओं को देखा तो दंग रह गए। किसी ने इंद्र को, किसी ने विष्णु भगवान् को ही दूल्हा समझ लिया। सोचने लगे, क्या बारात आई है, कितना सुंदर दूल्हा है। हमारी पार्वती के तो भाग खुल गए।

 बारात द्वार पर पहुँची और पार्वतीजी की माँ मैना स्वागत के लिए थाली लेकर आईं, भगवान् विष्णु ने कहा—अब दूल्हे को आगे कर दिया जाए। दूल्हा शिवजी आगे आए तो उनका रूप देखकर मैनाजी के हाथ से थाली गिर गई। 

लोग डरकर भाग गए। ऐसा दूल्हा, ऐसी बरात! यह सब क्या है? ‘नाना वाहन नाना बेसा। बिहसे सिर समाज निज देखा।’ कहते हैं, उस समय वहाँ का दृश्य देख शिवजी को आनंद आ गया। वे हँस दिए। 

यहाँ एक बड़े सूत्र की बात आती है। शिवजी कब हँस रहे हैं? जब विवाह करने जा रहे हैं। 

भगवान् शंकर हमें सिखाते हैं कि जब दांपत्य आरंभ करना हो तो मुसकराना सीख जाना चाहिए। कई लोग मुसकराते भी हैं। उनका मानना होता है कि पहले ही मुसकरा लो, बाद का कोई भरोसा नहीं। पता नहीं पत्नी के आने के बाद मुसकराहट बचेगी भी कि नहीं। लेकिन शिवजी कह रहे हैं—मुसकराना सीखिए और सदैव मुसकराइए। विवाह से पहले भी मुसकराइए, जीवन भर मुस्कुराइए। 

बारात पहुँची द्वार पर। दूल्हे का स्वरूप देख मैनाजी अवाक् रह गईं। घबरा गईं, हाथ से थाली गिर गई। नारदजी को कोसने लगीं। उसे क्या सूझा था, जो मेरी बेटी को ऐसा वर बता दिया। मैं पहाड़ से गिर जाऊँगी, जल में प्राण दे दूँगी, पर इससे अपनी बेटी नहीं ब्याहूँगी।

 दृश्य समझिए, दूल्हा द्वार पर खड़ा है और सासूजी ऐसा बोल रही हैं। बारात में किसी छोटे-मोटे बराती को न पूछा जाए तो उपद्रव हो जाता है। यहाँ तो सीधे दूल्हे का ही अपमान हो रहा है। देवता लोग घबराए, अब क्या होगा?शंकरजी बोले—चिंता न करें। सब ठीक हो जाएगा।

 यहाँ भी शंकरजी ने बड़ी सूत्र की बात कही। बोले—मैं क्या हूँ, यह मैं ही तय करूँगा। ये तय करनेवाले कौन हैं? मुझे कोई अहंकार, कोई ग्लानि नहीं है। मैं जैसा हूँ, वैसा आ गया। 

बिल्कुल ठीक बात है, जो हम सभी पर लागू होती है। हम दूसरों के कहने पर अपने आपको तय न करें। हम क्या हैं, हमें कैसा रहना है, यह हमें ही तय करना है। 

शिवजी दूल्हा बनकर खड़े हैं, सास मैनाजी क्रोध में लाल हो रही हैं। उसी समय नारदजी भी प्रकट हो जाते हैं। देखकर लोगों में उत्सुकता बढ़ गई कि अब देखते हैं नारदजी के क्या हाल होते हैं। 

उपस्थित लोग बोले—जाइए नारदजी, मैनाजी आप ही को याद कर रही हैं। नारदजी बोले—हम साधु हैं। यदि कहीं हमारी आलोचना हो रही हो और हम न पहुँचे तो साधु किस मतलब के? आगे बढ़े, मैनाजी के पास पहुँचे और समझाया कि आप जिन्हें दामाद बनाने जा रही हैं, वह कोई छोटा व्यक्ति नहीं है। ये त्रिलोकपति महादेव शंकर हैं।

 नारदजी के मुख से सारी स्थिति सुनने-समझने के बाद मैनाजी मान गईं और पार्वतीजी के साथ भगवान् का विवाह हो गया। शिवजी पार्वतीजी को लेकर कैलास पर आ गए। 

रामकथा का आरंभ होने जा रहा है। आप-हम उसी में प्रवेश करने जा रहे हैं। 

विवाह के बाद शिव-पार्वती कैलास पर जाकर बैठे हैं। तुलसीदासजी ने शंकरजी के रूप-सौंदर्य-शृंगार का वर्णन करते हुए अद्भुत पंक्तियाँ लिखी हैं—

 ‘जटा मुकुट सुर सर चरित लोचन नलिन बिसाल, 

 नीलकंठ लावण्य निधिसोह बाल बिधुभाल’।… 

जटाओं का मुकुट बनाया है। उसमें से गंगा निकल रही है, विशाल नेत्र हैं। नीले कंठ के साथ आप लावण्य की निधि हो रहे हैं, सौंदर्य का खजाना हो रहे हैं। और चेहरे पर आधा चंद्रमा बड़ा सुंदर लग रहा है। 

देखिए, शिवजी जब दूल्हा बनकर गए थे, तब ऐसे ही औघड़, शरीर पर भभूत और साँप लपेटे चले गए और यहाँ अकेले में शृंगारित होकर बैठे हैं। 

बस दुनिया की और शंकरजी की सोच में यही फर्क है। शंकरजी कहते हैं, संसार में लोग बहुत तैयार होकर ऊपर का आवरण ओढ़कर जाते हैं। मैं संसार में जैसा हूँ वैसा ही जाता हूँ, लेकिन एकांत में संयमित हो जाता हूँ।

 हम इसका उल्टा करते हैं। एकांत में असंयमित होते हैं और सार्वजनिक रूप से बड़े संयमित दिखते हैं। इसलिए अपना एकांत सँभालिए, अपने एकांत को दिव्य बनाइए। 

शिवजी कैलाश पर बैठे हैं और उसी समय पत्नी पार्वतीजी का प्रवेश होता है। वे उन्हें बड़े सम्मान से अपनी बाईं ओर स्थान देते हुए अपने पास बैठाते हैं। 

पार्वतीजी प्रश्न पूछती हैं—सती के जन्म में मैंने संदेह किया था भगवान् पर। मैं आपसे पुनः जानना चाहती हूँ, राम कौन हैं? जो दशरथ के बेटे हैं, जिन्होंने रावण को मारा। वेदों में जिनकी चर्चा आती है। वे राम कौन हैं? कृपा कर मुझे बताइए। 

शिवजी बोले—देवी, आपने बहुत अच्छा प्रश्न पूछा। सुनिए, मैं आपको रामकथा सुनाता हूँ। यहाँ से रामकथा आरंभ होती है। 

देखिए, जब पति-पत्नी एकांत में बैठे हों तो कामकथा तो फूटते देखी है, लेकिन यहाँ शंकर और पार्वतीजी के एकांत में रामकथा फूट रही है। इसको कहते हैं दांपत्य की दिव्यता। इसीलिए तो उनके घर कार्तिकेय, गणेशजी और हनुमानजी जैसी संतानें हुईं।

 याद रखिए, जिनका एकांत दिव्य है, उस दांपत्य की संतानें निश्चित रूप से संसार में प्रतिष्ठित और मान्य होंगी। दांपत्य या परिवार में वार्त्ता का केंद्र अहंकार नहीं होना चाहिए। तेरा-मेरा नहीं होना चाहिए। 

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