जीना सिखाती है रामकथा

माहात्म्य

परंपरा के अनुसार किसी ग्रंथ की चर्चा की जाए तो पहले उसके माहात्म्य की बात की जाती है। इसलिए उचित होगा कि रामचरितमानस के माहात्म्य की भी चर्चा कर ली जाए। 

श्रीरामचरितमानस कब प्रकट हुआ, कब लिखा गया, क्यों लिखा गया, यह अब तक एक सवाल ही है। काल के मामले में तुलसीदासजी कुछ संकोची रहे। 

रामचरितमानस में कालगणना बहुत कम दी। रामचरितमानस कब लिखा गया? उसके लिए उन्होंने लिखा संवत् सोलह सौ इकतीस में लिखा गया। उसके बाद चैत्र मास की नवमी (रामनवमी) को मंगलवार के दिन अयोध्या में प्रकाशित हुआ था। 

विद्वानों का मत है कि तुलसीदासजी की उम्र 77 वर्ष हो गई थी, जब उन्होंने रामचरितमानस को पूरा किया और यह ग्रंथ लिखने में उनको दो साल, सात महीने और 26 दिन लगे थे। तुलसीदासजी की आयु और उनके काल में बहुत मतभेद है। लेकिन विद्वानों में जो मान्य है, वह यही है। माहात्म्य की दृष्टि से देखा जाए तो रामचरितमानस में तुलसीदासजी ने आरंभ में संकेत के लिए कुछ ऐसी बातें लिखी हैं, जो हमारे बड़े काम की हैं। 

‘रामचरितमानस ऐही नामा, सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा।’ शंकरजी ने रचना की तो तुलसीदासजी लिख रहे हैं, इसका नाम रामचरितमानस रखा गया क्यों? इसलिए कि इसको सुनने-पढ़ने से मन को विश्राम मिलता है। मन की निराशा-हताशा दूर होती है। शांति मिलती है, संतोष मिलता है, तुष्टि होती है, पुष्टि हो जाती है। 

यहाँ एक बात ध्यान रखने की है। इसको सुनने के बाद विश्राम मिलता है। कथा सुनने से विश्राम मिले यह तो ठीक है, परंतु विश्राम करते हुए कथा सुनी जाए, यह कदापि उचित नहीं। कई बार देखा गया है कि लोग कथा-सत्संग में ही विश्राम करने लग जाते हैं। चलिए, इस किस्से से समझ लिया जाए।

 एक महात्माजी सत्संग कर रहे थे। श्रोताओं की पहली पंक्ति में एक पति-पत्नी बैठे थे—माँगीलाल और चंचला। थोड़ी देर बाद कथा सुनते-सुनते चंचला सो गई और कुछ ही देर में खर्राटे लेने लगी। कथावाचक देख रहे थे। वी.आई.पी. जोड़ा था, इसलिए आसपास बैठे लोग भी कुछ कह नहीं पा रहे थे। 

थोड़ी देर बाद माँगीलाल उठा और अपनी छड़ी लेकर बाहर चल दिया। जब कथा समाप्त हुई तो पंडितजी ने उन देवीजी (चंचला) से पूछा—बहनजी, कथा तो ठीक थी? वह बोली—हाँ, हाँ, पंडितजी, ठीक थी। बहुत आनंद आया। 

संकोच में पंडितजी यह नहीं कह पाए कि आप तो सो रही थीं। फिर पूछा—शायद आपके पति को कथा अच्छी नहीं लगी, इसीलिए वे उठकर बाहर चले गए।

 चंचला बोली—नहीं, नहीं पंडितजी, बात क्या है कि उनको तो बचपन से ही नींद में चलने की आदत है। 

देखिए, इस तरह लोग कथा में भी सो जाते हैं। 

ऐसा विश्राम मत कीजिए। जहाँ भगवान् की कथा हो, दो काम जरूर कीजिए। ताली बजाते रहिए और मुसकराते रहिए। ताली बजाते रहेंगे तो आपको मालूम रहेगा, यहाँ क्यों बैठे हैं। इसलिए जब भी किसी कथा, सत्संग में जाएँ, मन को स्थिर रखें, उसका पूरा आनंद लें।

 कई लोग लोक-लाज में कथा में बैठे तो रहते हैं, परंतु उनका मन बार-बार दौड़-दौड़कर बाहर जाता है। वे भूल ही जाते हैं कि यहाँ क्यों आए हैं। देखिए, आप अपने मन के विकार स्वयं से तो छुपा लेंगे, लेकिन उससे कैसे छुपाएँगे, जिससे कुछ नहीं छुपता। इसलिए जितनी देर कथा में बैठें, पूरे समय कथा ही सुनें। 

आगे तुलसीदासजी लिखते हैं— 

‘त्रिबिध दोष दुःख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥’ 

रामकथा सुनेंगे तो पाँच बातें आपके जीवन में एक साथ घटने लगेंगी। पहली बात आपके तीन दोष दूर होंगे। मनुष्य में तीन प्रकार के दोष होते हैं—मन, वचन और कर्म के दोष। 

इन तमाम दोषों का निवारण करती है श्रीरामकथा। मनुष्य के दुःख भी तीन होते हैं—जन्म, जरा और मरण। इन दुखों का भी निवारण करती है श्रीरामचरितमानस। 

इसके साथ ही दरिद्रता का भी विनाश करनेवाला है यह ग्रंथ। तीन तरह की दरिद्रता होती है मनुष्य की—तन की, जन की और धन की।

 दरिद्रता सिर्फ धन की ही नहीं होती। यह न समझिए कि जिसके पास धन न हो वह दरिद्र। ऐसा नहीं है। तन की भी दरिद्रता होती है। कभी अस्वस्थ हो जाते हैं, कभी और कोई समस्या आ जाती है। इसी प्रकार एक दरिद्रता होती है जन की। 

कुछ लोग जन के मामले में दरिद्र होते हैं। जिनके जीवन में अच्छे लोग नहीं होते, शास्त्रों में उनको भी दरिद्र माना गया है। इसलिए यदि आपके जीवन में अच्छे लोग नहीं हैं तो कोशिश कीजिए अपने आसपास, मिलने-जुलने, उठने-बैठने वाले, आपकी स्मृतियों में भले लोग, सरल, सहज और अच्छे लोग होने चाहिए। 

चौथी बात आपके पापों का निवारण होगा। तीन तरह के पाप माने गए हैं—दैहिक, दैविक और भौतिक। श्रीरामचरितमानस में इन तीनों ही पापों के निवारण के सूत्र छिपे हैं।

 पाँचवीं बात कलयुग की जो कुचाल है, इसको भी समाप्त करता है रामचरितमानस। कलयुग कुचाल मारता है। छलाँग मारकर हमारे सिर में, हमारे मस्तिष्क में, हमारी बुद्धि में कूद जाता है। 

यह कलयुग का ही परिणाम है कि हम उल्टा सोचने लगते हैं। सबकुछ उल्टा-उल्टा होता है। हम लोग सक्षम हैं, लेकिन संकट कम नहीं हुए।

 हमारे पास जीने का तरीका है, पर जीने का सलीका नहीं है। यह भी कलयुग है। आदमी की जुबान शब्दों से भरी हुई है, लेकिन उसके हृदय सूखे हुए हैं। इसका नाम भी कलयुग है।

 लोगों ने बड़ी-बड़ी इमारतें बना लीं, परंतु मन-मंदिर की नींव सूखी की सूखी रह गई। इसका नाम कलयुग है। रामचरितमानस का श्रवण-पठन कलियुग के इन दुष्प्रभावों को मिटा देता है।

 ‘रचि महेश निज मानस राखा। पाई सुसमउ सिवा सन भाषा॥’ रामचरितमानस या रामकथा का सबसे पहला निर्माण शंकरजी ने किया था और अपने मन में रखा। सुअवसर आने पर कथा उन्होंने पार्वतीजी को सुनाई। 

तुलसीदासजी कह रहे हैं कि रामकथा को केवल बुद्धि से नहीं सुनिएगा, इसको मन में उतारिए और जब भी सुअवसर आए, दूसरों को सुनाइए। ‘तातें रामचरितमानस बर। धरेऊ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥’ 

इसका नाम शिवजी ने रामचरितमानस रखा और यह नाम रखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। देखिए, रामचरितमानस को कहते-सुनते और पढ़ते समय मन में खूब प्रसन्नता रखिए।

 ‘करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥’ 

जो इस कथा को सुनते हैं, वे सज्जन लोग होते हैं। इस कथा को अपनी पूरी सज्जनता के साथ सुनिए और इसे भीतर उतारने के बाद स्वयं में सुधार कीजिए। 

रामकथा के चार वक्ता हैं और चार श्रोता। गरुड़जी को काकभुशुंडजी ने सुनाई, याज्ञवल्क्यजी ने भरद्वाजजी को, शिवजी ने पार्वतीजी को और तुलसीदासजी ने संतों को सुनाई। वही कथा इस पुस्तक के माध्यम से आप पढ़ रहे हैं।

 ऐसे चार वक्ता और चार श्रोता हैं और उनके भी अलग-अलग धरातल हैं। ये ज्ञान, भक्ति, कर्म और समर्पण इनके धरातल पर यह कथा प्रस्तुत की गई है। तुलसीदासजी समर्पण के घाट पर बैठे हैं। तो ये कथा चार घाट, चार वक्ता, चार श्रोता हैं। 

एक शब्द तुलसीदासजी ने बड़ा मौलिक लिखा है—‘राम सीय जस सलिल सम’ रामजी और सीताजी का यश सुंदर जल के समान है। तुलसीदासजी कहते हैं, इस जल में अपने मन को धोएँ और उसके बाद रामचरितमानस में उतरें। 

बात थोड़ी गहरी है, लेकिन इसके बिना आनंद नहीं आएगा। तो तुलसीदासजी ने कहा, ‘मति अनुहारि सुबारि…’ ये सुंदर कथा मैं अपने मन को रामजी और सीताजी के यश के जल में डालकर कह रहा हूँ। 

सुगंधित प्रसंग और सुंदर होगा और यहीं से सुंदर कथा का नेह किया है। तुलसीदासजी ने कहा, यह कथा बहुत सुंदर है और सचमुच बहुत सुंदर है। इस कथा में तो उन्होंने एक कांड ही सुंदर कांड रख दिया। लगभग 47 दोहे तक माहात्म्य वंदना क्रम आया है। 

कथा में प्रवेश करते हुए चलिए, वहाँ चलते हैं, जहाँ रामकथा के पहले दो पात्र हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। 

भरद्वाज ऋषि के आश्रम में सारे साधु-संत इकट्ठे होकर आपस में वार्त्तालाप किया करते थे। तुलसीदासजी ने लिखा—‘भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तन्हहि राम पद अति अनुरागा॥’ भरद्वाज मुनि प्रयाग में रहते थे। उनको रामजी में बहुत अनुराग था। 

एक बार बहुत से साधु-संत वहाँ एकत्र हुए। जब सभी जाने लगे तो भरद्वाजजी ने याज्ञवल्क्य ऋषि को रोक लिया। बोले—आप रुक जाएँ, मैं आपके मुख से रामकथा सुनना चाहता हूँ। कृपया मुझे सुना दीजिए। 

याज्ञवल्क्यजी ने कहा—भरद्वाजजी, आप रामकथा जानते हैं, लेकिन दूसरों को पता लगे, इसलिए पूछ रहे हैं। तो ठीक है, सादर सुनो और इसे अपने मन में उतार लो। 

यहाँ फिर मन की बात आती है। मन को नियंत्रित किए बिना भीतर से सहज नहीं हो सकते। सहज होने के लिए रामकथा को मन लगाकर सुनिए-पढ़िए। तुलसीदासजी ने यह कथा बड़े अच्छे से लिखी है। दृष्टांत के साथ-साथ सिद्धांत समझाने की अद्भुत कला थी उनमें। ऐसे-ऐसे गूढ़ सिद्धांत दृष्टांत में पिरोकर हमको समझाया कि यह आसानी से समझ में आ जाए।

 रामकथा में प्रवेश करने से पहले इसके एक-एक पात्र, एक-एक घटना से एक-एक संदेश लेकर चलना होगा। 

चलिए, पहले शिव के दांपत्य की चर्चा कर ली जाए।

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