जीना सिखाती है रामकथा

रामजी पत्नी से कहते हैं—सीते, आपको यहीं रुकना है। सिसकियों के बीच बहुत सारी बात बोलते-बोलते सीताजी कहती हैं—हे प्राणप्रिय पतिदेव, संसार में सब सहा जा सकता है, परंतु पति का वियोग सहना स्त्री के लिए बहुत कठिन होता है। यह बात तो माँ और आप भी जानते हैं कि एक सुहागन स्त्री के लिए धन, वैभव, परिवार के रूप में कितना ही सुख प्राप्त हो जाए, परंतु पति का वियोग उसके लिए सबसे बड़ा दुःख होता है। मुझे और कुछ नहीं चाहिए, बस आप से अलग मत कीजिए। आपके बिना मैं कैसे रहूँगी? प्राण चले जाएँगे मेरे। 

जब माँ के सामने सीताजी ने यह इशारा किया कि मेरे प्राण चले जाएँगे, तब राम समझ गए। गौर से सीता को देखा और मन में विचार किया, यदि मैंने हठ करके इसको यहीं छोड़ दिया तो यह सचमुच अपने प्राण त्याग देगी। भगवान् राम और सीताजी के बीच प्रेम ही ऐसा था कि एक-दूसरे के वियोग की कल्पना मात्र ही किसी अनहोनी का संकेत करने लगती थी।

 भगवान् को संकेत हो गया कि यह मेरे वियोग में जीवित नहीं रह पाएगी। बोल पड़े—ठीक है सीता, यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है तो चलो मेरे साथ। 

जिस समय सीता से भगवान् ने साथ चलने को कहा, कौशल्याजी ने भी अपनी मौन स्वीकृति दे दी थी। फिर भी सीता ने उनके आगे अपने तर्क रख दिए। कहती हैं—माँ, आप विचार कीजिए, यदि आज मैं इनके साथ नहीं जाती हूँ तो संसार यह कह देगा कि सुख में तो सीता राम के साथ रही, लेकिन जिस दिन राम को जंगल में संघर्ष करना पड़ा, दुःख उठाना पड़ा, उस दिन सीता साथ नहीं गई। 

मेरे नाम पर, मेरे नाम से संसार उदाहरण देगा कि पति-पत्नी का संघर्ष एक हो तो लक्ष्य आसानी से मिल जाता है। इसलिए कृपया मुझे जाने दीजिए, माँ। 

एक बार फिर कौशल्याजी ने धैर्य दिखाया। उस दिन यदि वे हठ पर आकर सीता को रोक लेतीं तो शायद रघुवंश का परिवार टूट जाता। कौशल्याजी कहती हैं—ठीक है, जाओ। तुम्हें तुम्हारे सुहाग के साथ संघर्ष करना होगा। 

जैसे ही भगवान् सीताजी को लेकर महल के बाहर निकले, दौड़ते हुए लक्ष्मणजी आ गए। भगवान् ने लक्ष्मण को देखा और बोले—लक्ष्मण, आज्ञा दो हमें वन को जाना है। भरत और शत्रुघ्न यहाँ हैं नहीं (दोनों भाई अपने ननिहाल में थे), सीता मेरे साथ जा रही हैं। पिताश्री को कुछ भान नहीं है, माताएँ भी दुःखी हैं। तुम्हारे ही भरोसे सबकुछ छोड़कर जा रहा हूँ भाई। सबको सँभाल लेना।

 दुःख में डूबे लक्ष्मणजी कहते हैं—एक बात सुन लीजिए भगवन्। यह सेवा करना, मान रखना मैं कुछ नहीं जानता। जिसे इस लोक में प्रतिष्ठा चाहिए और जिसे उस परलोक में मुक्ति चाहिए, वे कोई और लोग होंगे। मेरे लिए तो जहाँ राम हैं, वहीं अवध है। यदि आप अवध में नहीं तो लक्ष्मण के लिए अवध में रहने का कोई अर्थ नहीं। मैं भी आपके साथ वनवास पर चलूँगा।

 देखिए, बात-बात में लक्ष्मणजी ने यहाँ तक कह दिया कि न गुरु, न माता और न पिता। मैं किसी को नहीं जानता। मेरे लिए तो सबकुछ आप हैं। भगवान् समझाते हैं—लक्ष्मण, अवध की स्थिति को देखते हुए तुम्हें यहाँ रहना ही पड़ेगा।

 लक्ष्मण कहते हैं—आप आदेश देंगे भैया तो मैं मान लूँगा, लेकिन आपके जाने के बाद सरयू में कूदकर अपने प्राण दे दूँगा। लक्ष्मण प्राण त्याग देगा, परंतु राम के बिना अवध में नहीं रहेगा।

 भगवान् लक्ष्मण को जानते थे। बहुत हठी स्वभाव के थे लक्ष्मण। जो कहते, कर भी देते। भगवान् ने सोचा, यदि लक्ष्मण ने कुछ गलत कदम उठा लिया तो बहुत बड़ा अनर्थ हो जाएगा। परिस्थितियों को भाँपते हुए बोले—ठीक है भाई, तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो तुम भी चलो। भगवान् राम, लक्ष्मणजी और सीताजी वन गमन की तैयारी में राजसी वस्त्र उतार रहे हैं और उधर कैकेयी की इच्छा पूरी हुई तो प्रसन्नता के साथ शृंगार कर रही हैं। सोच रही हैं, अभी भरत आएगा और राजा बन जाएगा। यह जीवन का सच है। एक ही परिवार में, एक ही छत के नीचे कोई खो रहा है, कोई पा रहा है। लेकिन जो पा रहा है, वह भी खो रहा है। कैकेयी ने क्या पाया? जो था वह भी सब खो दिया। इधर राम जो खो रहे हैं, उसे खोकर उन्होंने ऐसा पा लिया कि आज तक उन्हें जगत् पूज रहा है।

 समय की माया देखिए, जिसे कुछ देर बाद चक्रवर्ती राजा बनना था, एक माँ द्वारा उसकी देह से राजवस्त्र उतरवाकर वल्कल वस्त्र चढ़ा दिए गए। वल्कल वस्त्र पहनकर राम पिता दशरथ के कक्ष में प्रवेश करते हैं, जहाँ महाराजा दशरथ राम-राम के अलावा कुछ नहीं बोलते। दशरथजी ने सीता और लक्ष्मण के साथ राम को वल्कल वस्त्र में देखा तो विचलित

हो गए। सुमंतजी से पूछते हैं—यह कौन सा निर्णय है? क्या हो रहा है यह सब? राम कहते हैं—पिताजी, मैं सीता और लक्ष्मण को साथ लेकर वन के लिए प्रस्थान कर रहा हूँ। आपको प्रणाम करने आया हूँ। कृपया आशीर्वाद के साथ हमें आज्ञा दीजिए।

 कहते हैं, मंथरा के कहने पर कैकेयी ने वल्कल तैयार कर लिये थे। राम से कहा—उतारो अब ये वस्त्र नहीं पहन सकते। भगवान् ने उसी प्रसन्नता से वे वस्त्र पहन लिये जो कैकेयी माँ ने दिए थे। जब कैकेयी सीता को वस्त्र देने लग गई तो दशरथजी से रहा नहीं गया। बोल पड़े—अति मत करो कैकेयी…। इसका क्या दोष है? मैं जनकजी को वचन देकर इसे अवध में लाया था। जिस दिन जनकजी ने रोते हुए बेटी सौंपी थी, मैंने कहा था, इसे अपने पुत्रों से अधिक चाहूँगा। जब यह जंगल-जंगल भटकेगी तो क्या उत्तर देगा यह दशरथ? मान जाओ कैकेयी, मान जाओ…। 

तभी वसिष्ठजी प्रवेश करते हैं। वहाँ का दृश्य देखकर उनका भी धैर्य टूट गया। कहते हैं—अरे रानी कैकेयी, यह क्या कर रही हो? कम-से-कम सीता के साथ तो ऐसा व्यवहार मत करो। कैकेयी पर तो मानो अनिष्ट नाच रहा था। किसी की कुछ सुनने को तैयार नहीं थी। 

रामजी पिताजी को प्रणाम करते हुए कहते हैं—पिताजी, आज्ञा दीजिए। वचन पूरा करने जा रहा हूँ। दशरथ सुमंत को बुलाकर कहते हैं—मैं जानता हूँ, राम नहीं मानेगा। परंतु तुम रथ लेकर साथ जाओ और कुछ दिन घुमाकर वापस ले आओ। मैं इन बच्चों को तुम्हारे भरोसे छोड़ रहा हूँ, सुमंत। 

सुमंत रथ तैयार करते हैं। जाते-जाते भगवान् कौशल्याजी को प्रणाम करते हैं। सुमित्राजी से मिलते हैं, कैकयीजी को प्रणाम करते हैं और बाहर निकलकर गुरु को नमन करते हुए कहते हैं—गुरुदेव, मैं चौदह वर्ष के लिए जा रहा हूँ। आज भरत के आने पर उसका राज्याभिषेक होगा। उसको राजगद्दी मिलेगी। मेरी इच्छा थी कि भरत को राजा बनते हुए देखूँ, परंतु यह शायद मेरे भाग्य में नहीं था। आपसे एक निवेदन है कि जब राजा बनकर वह सबको प्रणाम करेगा तो आपके पास भी आएगा। जब वह आपको प्रणाम करे तो मेरी ओर से आप ही उसको आशीर्वाद दे देना। कहना—राम यह माँग करके गया है, तेरा राज अखंड होगा।

 भगवान् की सदाशयता देखकर धैर्यवान वसिष्ठ की आँखों में आँसू आ गए। बोल पडे़—धन्य हो राम, तुम किस मिट्टी के बने हो! गुरु को प्रणाम कर रामजी विदा हो गए। 

कहते हैं, रामजी के राज्याभिषेक की खुशी में जो वंदनवार सजाए गए थे, लोगों की साँस ऐसी चली कि सारे उड़ गए। इतने आँसू बहे कि रंगोलियाँ बह गईं। कोई किसी से कुछ बोल नहीं पा रहा था। राम का जाना सारी अवध को गमगीन कर गया। रथ में बैठे तो लोग रथ के आगे लोट गए। घोड़ों की रास पकड़ ली। चिकार करने लगे—नहीं जाने देंगे अपने राम को।

 रामजी कहते हैं, जाने दीजिए हमें। यह राज्य का निर्णय है। हमें राजा की आज्ञा का पालन करने दें और आप सभी भी करें। अयोध्यावासी कहते हैं—ठीक है, आप राजाज्ञा का पालन कीजिए, परंतु हम आपको अकेले नहीं जाने देंगे। हम भी चलेंगे और पूरे 14 वर्ष आपके साथ रहेंगे। लोगों के विलाप के आगे भगवान् के सामने एक बार फिर संशय की स्थिति निर्मित हो गई। रामजी कहते हैं—ठीक है, चलिए, आप भी चलिए। लक्ष्मणजी की अचरज भरी दृष्टि पूछती है—प्रभु, इतना सारा कुनबा लेकर कहाँ चलेंगे? इशारों में ही राम समझाते हैं, अभी तो इन्हें चलने दो लक्ष्मण। रथ में सवार हुए और चल दिए एक दिव्य लक्ष्य की ओर। 

शाम होते-होते सभी तमसा नदी के तट पर पहुँचे। भगवान् बोले—रात होने को है, हम सभी रात्रि विश्राम यहीं करेंगे। दिनभर के थके-हारे लोग सो गए तो गहरी नींद लग गई। प्रातःकाल जल्दी उठकर भगवान् ने सीता व लक्ष्मणजी को जगाया और सुमंतजी से कहा—ये लोग सो रहे हैं, इन्हें यहीं सोने दो और हमारा रथ आगे बढ़ाओ। सुमंतजी ने ऐसा ही किया और समस्त अयोध्यावासियों को सोता छोड़ भगवान् आगे बढ़ गए।

 जब लोग उठे और उन्हें भगवान् नहीं दिखे तो चिल्लाने लगे—अरे! भगवान् चले गए, भगवान् चले गए। निराश अयोध्यावासी वापस नगर में लौट आए। 

देखिए, यहाँ सूत्र की बात यह है कि भक्ति के मार्ग पर जो सो जाएगा, उसका भगवान् चला जाएगा। इसलिए भक्ति में जागते रहिए।

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