अब कैकेयी पर कुसंग अपना असर दिखाने लगा। अब तक जो कैकेयी ऊँची कक्षा में बात कर रही थी, वह मंथरा के कुसंग से मंथरा से भी अधिक नीचे गिर गई। वह तो दासी थी, दासी गिरेगी तो कितना नीचा गिरेगी? नीचे थी तो नीचे ही गिरी। पर जब रानी ऊँचे से गिरती है तो चोट ज्यादा लगती है। कैकेयी गिरी तो ऐसी गिरी कि पूरा अवध हिलाकर चली गई।
कहती हैं—मंथरा, मैं दासी नहीं बन सकती, मैं सेवा नहीं कर सकती। मेरे खिलाफ जो षड्यंत्र चल रहा है, उसकी कल्पना करके मुझे भय लगने लगा है। मंथरा समझ गई कि अब बात बनती दिख रही है। बोली—चिंता मत करो रानी। मैं जैसा कह रही हूँ, आप वैसा करना। आपके पास दो वर हैं राजा से लेने के लिए। अभी जब राजा आपके कक्ष में आएँ तो अपने दो वर माँग लेना।
भरत के लिए राज्य माँगना और राम के लिए आप जैसा उचित समझो माँग लेना। आगे समझाती है कि जब राजा आएँ तो आप अपना रूप भी ऐसा बना लेना कि देखकर वे भी चिंतित हो जाएँ। कोपभवन में चले जाना, वस्त्रालंकार उतार लेना और अड़ जाना अपनी बात पर।
उस समय तो उन्होंने काले वस्त्र पहन लिये और कहा, कोपभवन में चली जाओ।
पहले के समय नाराजी के वस्त्र अलग हुआ करते थे, प्रसन्नता के अलग होते थे। जैसे अब खेलने के अलग होते हैं, घूमने के, सोने के अलग होते हैं। पहले वस्त्र देखकर ही समझ जाया करते थे कि पहनने वाले का मूड कैसा है। इसी तरह भवनों में एक कोप भवन हुआ करता था, जहाँ नाराजी व्यक्त की जाती थी।
तब और अब में फर्क है। कोपभवन पहले एक हुआ करता था, अब कोप का निवारण पूरे घर में कहीं भी हो जाता है। वरांडे से शुरू होता है तो आखिरी तक चला जाता है। बैडरूम, ड्रॉइंगरूम, डाइनिंगरूम कहीं भी कोप शुरू हो जाता है। घर का कोई भी हिस्सा कोपभवन बन जाता है।
कैकेयी चली गई कोप भवन में। मंथरा को बड़ी ताकत लगी रानी को राम से बाहर निकालने में। कभी-कभी ऐसा होता है। कोई किसी पर टिक जाए तो उसे बाहर निकालने में बहुत ताकत लगती है।
चलिए, इस बात को एक छोटे से किस्से से समझते हैं।
माँगीलाल और चंचला नाम का एक जोड़ा था। चंचला को पति से एक दिक्कत थी। एक दिन अपनी सहेली से बोली—ये मेरा पति तो चौबीस घंटे अपनी माँ की ही बात करता रहता है। जब देखो, मेरी माँ, मेरी माँ…। मैं तो परेशान हो गई सुन-सुनकर। शादी मुझ से की, पर माँ नहीं छूटी। मैं इसकी माँ छुड़ाना चाहती हूँ। मेरा भी तो कुछ जीवन है।
सहेली समझदार थी। बोली—मैं छुड़ा सकती हूँ उनकी माँ को। चंचला बोली—हाँ यार, कुछ कर न! मुझ पर तेरी बड़ी कृपा हो जाएगी।
सहेली बोली—एक काम कर, तू उसको रिझा ले तो उसका ध्यान माँ से हट जाएगा। चंचला ने पूछा—कैसे रिझा लूँ? कुछ तरकीब तो बता।
सहेली बोली—मैंने सुना है, शहर में काले रंग के वस्त्र आए हैं। बड़े सुंदर और अट्रेक्टिव हैं। तू उन्हें पहन ले। पहनकर तू सुंदर लगेगी तो वह तेरी ओर आकर्षित होगा। तब थोड़ा उसको समझा देना।
चंचला ने सोचा, बात तो ठीक है। खरीद लाई महँगे काले वस्त्र और पहन लिये। सोचने लगी, ये आएँगे तो आकर्षित होंगे और मैं उन्हें थोड़ा माँ से बाहर निकालने की कोशिश करूँगी।
शाम को माँगीलाल दफ्तर से आया और जैसे ही चंचला ने दरवाजा खोला, उसको काले वस्त्र में देख बोला—काले वस्त्र! तो मेरी माँ मर गई क्या?
राजा दशरथ कैकेयी के महल में अधिक रहते थे। उस रात भी गए महल में और पूछा—कहाँ है कैकेयी? मंथरा ने बताया कि वे तो कोपभवन में हैं। राजा बोले—कोप भवन में! क्यों? चिंता हुई तो वहाँ पहुँच गए। जाकर देखा, रानी कैकेयी बाल फैलाए नागिन की तरह फुफकारें मार रही है।
तुलसीदासजी रामचरितमानस में इस दृश्य को लिखते हुए कहते हैं—‘बार-बार कह राउ सुमुखि सुलोचनि पिकबचनि। कारन मोहि सुनाउ गजगामिनी निज कोप कर॥’
हे सुलोचिनी, हंसमुखी, हे गजगामिनी, तेरे निज क्रोध का, तेरे कोप का कारण मुझे बता। तुम किस बात से दुखी हो, मुझे बताओ।
देखिए, घर-परिवार में जब कोई निर्णय लिया जाए तो चार बातें—काम, क्रोध, लोभ और मद से बचना चाहिए। और उस दिन ये ही चार बातें होने लग गईं।
परिवार में निर्णय लिया राम को राजा बनाना है, सबकी सहमति हुई, पर मंथरा के रूप में लोभ चला आया। उसके बाद क्रोध आया, क्रोध कैकेयी पर सवार हो गया। काम बचा था तो दशरथजी लेकर आ गए और मद तो था ही कैकेयी में कि मुझे ज्यादा प्यार करते हैं। जब परिवारों के निर्णय में काम, क्रोध, लोभ और मद आ जाएँ तो वे निर्णय ठीक नहीं होते। इसलिए जब भी परिवार में कोई निर्णय हो, इन चारों चीजों से बचा जाए। परिवार के सदस्य पति-पत्नी हों, भाई हों, बाप-बेटे हों, जब भी एकांत में बैठकर कोई निर्णय लें, काम, क्रोध, लोभ और अहंकार को बाहर ही रहने दें। ये विकार कब अंदर आ जाते हैं, मालूम ही नहीं पड़ता। उस दिन अयोध्या के राजमहल में प्रवेश कर गए और रामराज्य की संभावनाओं को हिला दिया।
लोभ के रूप में मंथरा, क्रोध व मद के रूप में कैकेयी और काम लेकर राजा आ गए। जिसके चार-चार पुत्र हों, पुत्र वधुएँ हों, ऐसा अनुभवी राजा, जो आयु की परिपक्वता पर पहुँच गया हो, अपनी रानी से क्या बोल रहा है?
दशरथ जब रानी कैकेयी के पास गए और उनसे जो संवाद किया, उसने वातावरण में काम घोल दिया और वातावरण बिगड़ना आरंभ हो गया। कैकेयी से कहते हैं—हे सुमुखी, हे सुलोचिनी, हे पिकवचनी, हे गजगामिनी, हाथी की चाल जैसी मस्तानी चलने वाली। चंदा के समान चेहरे वाली, आज तुम्हें क्या हो गया है? तुम क्या माँगती हो बोलो। कल राम राजा बन जाएगा, अब बोलो तुम्हें क्या चाहिए?
कैकेयी बोलती है—राम को राजा बना रहे हो, वह तो ठीक है, पर आपने मुझे जो दो वचन दिए थे, वे कब पूरे करोगे? आज मुझे वो दोनों वचन चाहिए।
दशरथजी बोले—दो क्या चार माँग लो। बोलो क्या चाहती हो?कैकेयी कहती है—दो ही माँग रही हूँ और दो ही देने होंगे। दशरथ बोले—राम की शपथ, बोलो क्या माँगती हो?
देखिए, मद और क्रोध से जल रही कैकेयी क्या माँग बैठती है। बोली—पहला वचन यह माँगती हूँ कि मुझे भरत के लिए राजगद्दी चाहिए। मेरे भरत को राजा बना दीजिए।
‘सुतहि राजू रामहि बन बासू…को न कुसंगति पाइ नसाई…’
राजा ने कहा—भरत को राजगद्दी मिलना है तो ठीक है। राम तो स्वयं कई बार यह कह चुके हैं और यह बात राम को पता लगेगी तो वह बहुत प्रसन्न होगा। अपने भाई से बहुत प्रेम करता है। बस, इतनी सी बात और आप रूठ गईं। बोलिए, दूसरे वचन में क्या चाहती हो? दशरथजी को लगा, मन-ही-मन कुछ परिहास, कुछ विनोद कर रही है। ऐसे प्रसंगों में स्त्रियाँ कभी-कभी रूठ जाती हैं। यह भी इसी तरह मेरी परीक्षा ले रही होगी। लेकिन…
जब कैकेयी के मुँह से दूसरा वचन सुना तो दशरथजी डोल गए। उनका हृदय कँपकँपाने लगा। इतिहास के पन्ने फड़फड़ाने लगे। दूसरे वचन में कैकेयी ने माँग लिया कि
‘तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरस रामु बनबासी॥’
राम को तापस वेश में, तपस्वी के वेश में उदासीन व्रत लेकर 14 साल के लिए वन में भेज दीजिए। सुनकर राजा काँप उठे, धड़ाम से धरती पर बैठ गए। यह क्या बोलती हो कैकयी? कृपया इस तरह का परिहास न करो। इतना अधिक विनोद न करो। मैं जानता हूँ, राम के लिए तुम यह कल्पना भी नहीं कर सकतीं। कोई और प्रसंग है या तो मुझे छकाना चाहती हो। अब तो सत्य बोलो, होश में आओ कैकेयी।
कैकेयी बोलती है—होश में आप आएँ राजाजी। मैंने तो वचन माँगा है और आपको देना पड़ेगा। इसमें कोई विनोद या परिहास नहीं है। मुझे दो ही बातें चाहिए। राम को 14 वर्ष का वनवास और भरत का राजतिलक। दशरथ आपा खो बैठे, गरजने लगे। तुझ पर भरोसा करके मैंने यह क्या कर दिया कैकेयी?
कैकेयी कहती है, हमारा रघुवंश सत्य के लिए जाना जाता है। आपकी तो नीति ही ऐसी है कि प्राण जाए पर वचन न जाए। तो दीजिए आज वचन। यदि नहीं दे सकते तो रघुवंश का मान चला जाएगा और मैं इसी अटारी से कूदकर जान दे दूँगी। फिर तो आपका यश भी चला जाएगा।
राजा बात में बँध गए। दोनों पति-पत्नी के बीच में तनाव बढ़ गया। समझ नहीं आ रहा था, क्या वार्त्तालाप करें। जीवन में कई बार ऐसी स्थितियाँ आ जाती हैं, जब अपनों से ही, अपनों के बीच में ऐसी स्थिति निर्मित हो जाती है। ऐसे में समझ में नहीं आता कि बात कहाँ से सुलझाएँ?
दशरथ रो रहे हैं, रानी रो रही हैं। रात कब गुजर गई, पता ही नहीं चला और भोर ने दस्तक दे दी। सुमंतजी जाग चुके थे। राजतिलक की सारी तैयारी जो करनी थी। राजा के मंत्री थे, समारोह का सारा दायित्व उन पर था। लेकिन देखा, राजा प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठकर अपनी क्रिया करते हैं, परंतु आज राजमहल सुनसान! लगता है, राजा सोकर नहीं उठे।
कैकेयी के महल में गए तो रानी ने कहा—महाराज सोए हुए हैं। कुछ बोलते नहीं हैं। सुमंतजी बूढ़े मंत्री थे, राजा के मित्र भी थे। आज पहली बार अपने राजा को इस रूप में देखा तो माथा सन्न रह गया। समझ गए, स्वास्थ्य खराब नहीं है, कुछ अनहोनी हो चुकी है।
कैकेयी कहती हैं—राम को बुला लो। रातभर से महाराज राम, रामपुकार रहे हैं। सुमंत जाते हैं। रामजी से कहते हैं—तत्काल चलिए, राजाजी ने आपको याद किया है, माँ कैकेयी बुला रही हैं।
भगवान् राम जैसे ही प्रवेश करते हैं, देखा, पिता धरती पर लेटे हैं, माँ एक ओर क्रोध में खड़ी हुई हैं। भगवान् ने प्रणाम करके पिता से पूछना चाहा तो कैकेयी कहती हैं—ये क्या बोलेंगे, मैं बताती हूँ। एक बार इन्होंने मुझसे दो वचन माँगने की बात कही थी। आज मैंने माँग लिये तो इतना आवेशित हैं।