जीना सिखाती है रामकथा

रामजन्म के कारण—

मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥ 
जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहं रमा न राजकुमारी॥ 

कथा आरंभ करते हुए शंकरजी पार्वतीजी से कहते हैं—देवी, सबसे पहले मैं आपको रामजन्म के कारण बताता हूँ कि रामजी ने जन्म क्यों लिया। इसके पीछे तीन कारण हैं— 

1. जय-विजय : रामजन्म का पहला कारण था जय-विजय। जय-विजय भगवान् के द्वारपाल थे। एक बार सनकादि ऋषि भगवान् के दर्शन करने गए। द्वार पर खड़े जय-विजय ने उनको जाने नहीं दिया। सनकादि ऋषि क्रोधित हुए और शाप दे दिया कि तुम तीन जन्मों तक राक्षस बनोगे। शाप फलित हुआ तो दोनों अगले जन्मों में राक्षस बनते गए। 

एक बार हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु बने, उसके बाद के जन्म में रावण और कुंभकरण बने तथा तीसरे जन्म में शिशुपाल-दंतवक्र बने।

 हर जन्म में भगवान् ने अवतार लेकर उनका वध किया। त्रेता युग में भगवान् राम ने रावण और कुंभकर्ण के रूप में उनको समाप्त किया। यह रामजी के जन्म का पहला कारण था। 

2. जलंधर : जलंधर नाम का एक राक्षस था। पत्नी के सतीत्व के कारण वह मरता नहीं था। भगवान् ने उसके लिए स्त्रीधर्म खंडित किया। 

उसने भगवान् को शाप दिया—आपको मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा। यह रामजी के जन्म का दूसरा कारण बताया। 

3. नारद : तीसरा कारण बताते हुए शिवजी बोले—एक बार नारदजी ने भगवान् को शाप दिया…। जैसे ही यह बात पार्वतीजी ने सुनीं, एकदम चौंक गईं। क्योंकि नारद पार्वतीजी के गुरु थे। सोचने लगीं गुरु ने शाप क्यों दिया होगा?

 पूछने लगीं—भगवान् ने कौन सा अपराध किया था कि नारदजी को शाप देना पड़ा। भगवान् शंकर मुसकरा दिए कि कमाल करती हो देवी। आपका मतलब है, अपराध किया होगा तो भगवान् ने किया होगा। नारद ने नहीं किया। 

कई बार हमारे जीवन में ऊपरी दृश्य देखकर ऐसा भ्रम हो जाता है, लेकिन जब भीतर जाएँगे तो वह सत्य नजर आता है, जो सतह पर दिखाई नहीं देता। 

भगवान् शंकर को लगा, ये बार-बार भूल रही हैं। इनको कथा बतानी ही पड़ेगी। बोले—देवी अब आप यह भी सुन लीजिए। 

आप भी ध्यान से पढ़कर इसे समझिएगा। बड़ी अच्छी कथा है, जो हमारे जीवन से गुजरती है। शिवजी सुनाना शुरू करते हैं—

 एक बार नारदजी हिमालय की तलहटी पर पहुँचे। बड़ा सुंदर, सुरम्य वातावरण था वहाँ का। आँखें बंद कीं, ध्यान लगाया तो समाधि घट गई। नारदजी को दक्षराज का शाप था कि एक जगह रुक नहीं सकते। लेकिन यहाँ समाधि घट गई। 

संत की तपस्या से बड़ी-बड़ी सत्ताएँ हिलने लगती हैं। इंद्र चिंतित हो गए। लगा—अगर इनकी तपस्या घट गई तो ऐसा न हो कि मेरा इंद्रासन ही माँग ले। इंद्र ने कामदेव को बुलाया और कहा किसी भी प्रकार से नारद की तपस्या भंग करो। 

कामदेव अपने सहयोगियों को लेकर पहुँचा। देखा नारदजी ध्यान लगाए बैठे हैं। कामदेव ने ऋतु बनाई, नृत्यांगनाएँ प्रस्तुत कीं, अपना पूरा वातावरण निर्मित किया, पर नारदजी की तपस्या भंग नहीं कर सका। 

कामदेव हार सा गया, लौटकर जाने लगा। तभी उसे कुछ याद आया। सहयोगियों ने कहा—देवता अब हमारे वश में नहीं हैं। कामदेव बोला—कोई बात नहीं। 

हर प्रकार के यत्न के बाद भी यदि किसी की तपस्या भंग नहीं हो रही हो तो मैं तीन सूत्र बताता हूँ। इनसे अच्छे-अच्छों की तपस्या भंग हो सकती है। सहयोगियों ने कहा—देर किस बात की महाराज। बताइए। 

कामदेव गया नारदजी के पास। उन्हें पुष्प अर्पित किए, प्रणाम किया और प्रशंसा आरंभ कर दी। बोला—आप धन्य हैं महाराज। शंकरजी ने तो मुझे भस्म कर दिया, पर आप हैं कि आपने तो मेरी ओर देखा तक नहीं। क्रोध भी नहीं किया। 

शंकरजी ने तो क्रोध भी किया था, काम भी किया। परंतु आपको न तो क्रोध है, न काम है और न ही लोभ है। तीनों बातों में आप अद्भुत हैं महाराज। बस नारदजी का ध्यान टूट गया, आँखें खुल गईं। 

ध्यान रखें, प्रणाम, पुष्प और प्रशंसा—ये चीज ऐसी हैं, जो मनुष्य को औंधा कर देती हैं। उसका ध्यान भटका देती हैं। किसी को झूठा प्रणाम कर दो, पुष्प या माला पहना दो और थोड़ी सी प्रशंसा कर दो। वह ऊँचाई पर चढ़कर कब और कैसे गिर जाएगा, पता ही नहीं चलेगा।

 प्रशंसा वह मदिरा है, जो कानों से पिलाई जाती है। मुँह से पी गई मदिरा के असर से तो आप दो-चार कदम ही लड़खड़ाएँगे, पर प्रशंसा के रूप में कानों से पिलाई जानेवाली मदिरा से पूरा व्यक्तित्व ही लड़खड़ा जाता है। इस मदिरा से सावधान रहिए। 

कामदेव का सूत्र काम आया। नारदजी प्रसन्न हो गए। कामदेव के जाने के बाद नारदजी को लगा—चलो, सबसे पहले शंकरजी को बताया जाए। क्योंकि उन्होंने इसको भस्म किया और मैंने इसे क्षमा कर दिया। मैं तो उनसे एक सीढ़ी ऊपर हूँ। 

अपनी उपलब्धि जब तक दूसरों को न बता दें, कइयों का स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। नारदजी के साथ भी ऐसा ही हुआ। 

कैलाश पहुँच गए। शंकरजी दूर से ही पहचान गए। सोचा, आज महाराज कुछ ठीक नहीं दिख रहे हैं? नारद पहुँचे और शुरू हो गए। मैंने काम को इस तरह हरा दिया। मैंने काम को ऐसे पराजित किया। आपने तो उस पर क्रोध भी किया, मैंने क्षमा कर दिया। 

शंकरजी समझ गए कि नारद प्रशंसा की मदिरा पीकर आया है। बोले—संत महाराज, लोग आपसे रामकथा सुनने की अपेक्षा करते हैं और आप कामकथा सुनाए जा रहे हैं? ठीक है, आपने मुझे तो सुना दी, परंतु ध्यान रखना, यह बात वैकुंठ में विराजे विष्णुजी को भूलकर भी मत सुनाना। 

दुनिया का नियम है, किसी को कोई काम न करने को बोलो तो वह जरूर करेगा। उसके मन में विचार जागेगा कि नहीं करने की सलाह के पीछे भी कोई षड्यंत्र काम कर रहा होगा।

 नारदजी ने भी कुछ ऐसा ही सोचा। शायद शंकरजी मेरी प्रतिष्ठा से जल रहे हैं। इसीलिए मना किया है कि विष्णु को मत सुनाना। शिवजी पर शक किया और पहुँच गए वैकुंठ। 

विष्णुजी ने देखा तो बोले—क्या बात है नारदजी, आज अचानक…? नारदजी ने अपनी सारी कथा सुनाई। तब विष्णुजी ने सोचा, मेरा तो प्रण ही है कि सेवक का हित करूँ। उनके भीतर उपजे अहंकार के पौधे को उखाड़कर फेंक दूँ। लगता है, नारद का भी हित करना पड़ेगा। 

यह हमारा स्वभाव है। कई बार हम भगवान् से जो माँगते हैं, यदि भगवान् वह नहीं देता तो हमको लगता है या तो भगवान् है नहीं और है तो हमारे लायक नहीं है। 

ऐसा नहीं है। भगवान् तो हर प्रकार से भक्त का हित ही चाहते हैं। इसलिए यदि हमारी इच्छा का काम हो जाए तो अच्छा है और यदि न हो तो इससेभी ज्यादा अच्छा है, क्योंकि फिर वह भगवान् की इच्छा का होता है। नहीं होने में भी कहीं-न-कहीं हमारा हित छिपा होता है। 

भगवान् का हिसाब विचित्र है। नारदजी ने बताया, मैंने ऐसा कर लिया, वैसा कर लिया…। भगवान् ने कहा, ठीक है, जो भी हो, आपके हित की बात करूँगा। 

नारदजी चले गए तो भगवान् ने एक मायानगरी रची। शीलनिधि नाम का राजा और विश्वमोहिनी नाम की उसकी सुंदर कन्या थी। ऐसा राज्य बनाया कि नारदजी वहाँ गए तो देखते ही रह गए। 

राजा ने नारदजी को प्रणाम कर सम्मान के साथ बैठाते हुए कहा—यह मेरी पुत्री विश्वमोहिनी है। नारदजी ने विश्वमोहिनी को देखा तो उसी को देखते रहे। सारी तपस्या धरी रह गई। राजा ने कहा—यह विवाह योग्य हो गई है, इसका भाग्य पढ़ दीजिए, महाराज। 

देखिए, आदमी के सिर पर माया चढ़ जाए, काम चढ़ जाए, लोभ चढ़ जाए तो उसकी सोच, नीति, चिंतन की गति उल्टी हो जाती है।

 नारदजी ने उस कन्या का हाथ अपने हाथ में लिया तो नारदजी को समझना यह था कि इस युवती का पति वह होगा, जो त्रिलोकपति होगा, लेकिन समझ गए उल्टा।

 मन पर माया का परदा पड़ा था तो उल्टा पढ़ गए कि जो इससे विवाह करेगा वह त्रिलोक पति हो जाएगा। नारदजी ने सोचा, बहुत हो गई तपस्या, बहुत हो गए साधु। अब विवाह रचा ही लें। भगवान् की माया ने अपना काम शुरू किया और नारदजी के मन में उससे विवाह करने का भाव जाग गया।

 मन में एक ही बात बैठ गई कि किसी भी प्रकार से विश्वमोहिनी मिल जाए। सोचने लगे, स्वयंवर होगा तो एक से एक सुंदर राजा आएँगे। मैं तो साधु हूँ, सुंदर भी नहीं दिखता। कुछ उपाय किया जाए। 

वहीं ध्यान किया और भगवान् विष्णु प्रकट हो गए। बोले—कहिए नारदजी, बहुत शीघ्रता में लग रहे हो। बोले—महाराज स्वयंवर होने वाला है। शीलनिधि की कन्या से विवाह की इच्छा है। अपना रूप दे दीजिए। 

भगवान् मन-ही-मन मुसकराए। सोचने लगे—मेरा तो काम ही है आपका भला करना। मैं वही करूँगा, जिसमें आपका हित होगा।

 देखिए, आदमी के सिर पर जब काम-क्रोध चढ़ जाए तो दूसरे की भाषा भी उल्टी सुनाई देती है। नारदजी भगवान् की भावना नहीं समझ सके और बोले—हाँ भगवान्, ऐसा ही कीजिए। 

भगवान् विष्णु ने कहा—ठीक है, जाइए। भगवान् ने उनको विकृत रूप दे दिया मर्कट यानी बंदर का ऐसा रूप दिया, जो केवल विश्वमोहिनी को ही दिख रहा था। बाकी सबको नारद ही लग रहे थे।

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