राजसभा
अयोध्या कांड की एक-एक घटना हमको बताती है कि लक्ष्य को पाने के लिए इधर-उधर मत भागिए। श्रीराम अपने चरित्र से बताते हैं कि राजगद्दी मिल रही थी, तब भी मैं उस स्थिति में था और यदि मैं जंगल चला गया तो भी उसी स्थिति में हूँ। जिसको अवध में भी मिलना था, उसको जंगल में मिल गया और जिसको जंगल में नहीं मिल रहा, उसको घर में भी नहीं मिल रहा है।
अयोध्या कांड विविध पात्रों का, विविध घटनाओं का सोपान है। भगवान् राम के जीवन में लगातार घटनाएँ घटने का कांड है। बहुत सारी घटनाएँ एक साथ घट जाती हैं। लेकिन श्रीराम और इस कांड के नायक भरतजी हमको यही बताते हैं कि जीवन में जब विपरीत परिस्थिति आए और तब भी आपको वह मिल जाए, जिसके लिए आप भेजे गए हैं, तब समझो-जीवन जीया। इसलिए कहा गया है कि रामायण जीना सिखाती है।
सीताजी के साथ भगवान् की गृहस्थी आरंभ हो चुकी थी। अयोध्या में चारों ओर आनंद छाया हुआ था। माता-पिता प्रसन्न थे, सारे अवधवासी आनंद में डूबे हुए थे और सबको प्रतीक्षा थी कि श्रीराम के राजतिलक का निर्णय कब होगा?
एक दिन दशरथजी राजसभा में गुरु वसिष्ठ व मंत्रीगण के साथ बैठे थे। सभा में दशरथजी कहते हैं—सोचता हूँ, अवसर आ गया है कि अब राम को राजा बना दिया जाए। आप लोग क्या सोचते हैं?सभी ने एक स्वर में कहा—महाराज, आपकी जय हो, जय हो…। बिल्कुल उचित निर्णय है, अब बिना विलंब के राजकुमार राम को राजा राम बना दिया जाए।
उसी प्रसंग पर तुलसीदासजी ने एक पंक्ति लिखी है—
‘रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा,’ इसका अर्थ है, जैसे ही प्रशंसा हुई, जय-जयकार हुई, दशरथजी ने अपने हाथ में एक दर्पण ले लिया और उसमें अपना चेहरा दखने लगे। बड़ा विपरीत आचरण करने लगे दशरथजी। दर्पण एकांत में देखा जाता है। लेकिन वे भरी सभा में देखने लगे।
आगे तुलसीदासजी लिखते हैं—‘बदन बिलोकी मुकुट सम किन्हा’ दर्पण में देखा तो राजा को दिखा, मुकुट तिरछा हो गया था। अपने बदन को देखकर मुकुट को सीधा किया और जैसे ही सीधा किया—‘श्रवण समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥’ कान के पास के बाल सफेद दिख गए।
तभी किसी ने दशरथजी से पूछ लिया—महाराज, यह आप क्या कर रहे हैं?भरी सभा में आपने दर्पण देख लिया? दशरथजी कहते हैं, जब संसार आपकी प्रशंसा करे, जब समाज आपकी जय-जयकार करे, जब चारों ओर से प्रतिष्ठा मिले तो पहला काम दर्पण देखकर तय कीजिए कि क्या आप इस योग्य हैं।
देखना क्या था और दिख क्या गया। देखना योग्य-अयोग्य था, दिख गया मुकुट तिरछा हो गया है। सत्ता का तो स्वभाव ही है खिसकना। समय रहते नहीं सँभालो तो एकदम से खिसक जाती है। प्रतीकात्मक बात यह है कि मुकुट खिसकने का संकेत था, सत्ता खिसकने वाली है।
तो दशरथजी ने सत्ता सँभाली और फिर देखा कि कान के पास बाल सफेद हो गए हैं। बस, राजा समझ गए कि बुढ़ापे ने दस्तक दे दी है। सत्ता को सँभालकर नई पीढ़ी को हस्तांतरित कर देने का अवसर आ गया है, अब सत्ता राम को सौंप दी जाए। वसिष्ठजी से पूछा और निर्णय ले लिया कि शुभ कार्य में देर न करते हुए कल ही राम का राजतिलक कर दिया जाए।
श्रीराम के राजतिलक की घोषणा होते ही अवधवासियों का आनंद दोगुना हो गया। चारों ओर से जय-जयकार होने लगी।
देखिए, कोई भी शुभ काम, जिसके लिए सभी सहमत हों, उसके लिए मुहूर्त देखने की आवश्यकता नहीं होती। शुभ कार्य जितना जल्दी हो सके, पूरा कर लिया जाए और अशुभ को जितना टाला जा सके, टाल दीजिए। कभी-कभी शुभ काम को कल तक भी टाला तो हो सकता है, वह हमेशा के लिए टल जाए।
वसिष्ठजी ने आदेश दिया, सारी अवधपुरी बावरी होकर जुट गई। सब अपने-अपने दायित्व निभाने लगे। श्रीराम अपने कक्ष में घूम रहे थे और सूचना दी गई कि आपके द्वार पर गुरुदेव पधारे हैं। राम चौंक गए। गुरुजी और मेरे द्वार पर! दौड़कर बाहर आए। प्रणाम कर कहते हैं—गुरुदेव, आपने कष्ट क्यों किया? मुझे याद किया होता, मैं आपके कक्ष में आ जाता। वसिष्ठजी कहते हैं—राम, मैं तुम्हें सूचना देने आया हूँ कि कल तुम राजा बनने वाले हो।
यहाँ तुलसीदासजी फिर एक सुंदर पंक्ति लिखते हैं—‘राम करहु सब संजम आजू, जो बिधि कुसल निबाहे काजू।’ राम, परमात्मा सारे काम ठीक से कर दें, इसके लिए आज की रात तुम सारे संयम का पालन करना। कल तुम्हें सत्ता मिलने वाली है। तुम्हें देखकर प्रजा अपना आचरण तय करेगी। यह रामराज्य में ही संभव था कि गुरु अपने शिष्य से कह रहे हैं कि कल तुम्हें सत्ता मिलेगी, इसलिए आज संयम पालना। बिना संयम के सत्ता पर मत बैठ जाइएगा। क्या दौर था वह, जब कहा जाता था कि आपके पास जब सत्ता आ रही हो तो सबसे पहले संयम पालिए। सत्ता के स्वागत में धैर्य, सत्य, अहिंसा, पुरुषार्थ, ये सारे संयम पाले जाते थे। आज के दौर में तो सत्ता की संभावना बनते ही सबसे पहले संयम छोड़ा जाता है। रामजी ने गुरु को प्रणाम किया और वे चले गए।
गुरुदेव सूचना देकर चले गए और रामजी विचार में डूब गए। सोचने लगे—क्या पिताश्री का यह निर्णय ठीक है? सोचते-सोचते रामजी थोड़ा सा बेचैन हो गए। उसी समय सीताजी कक्ष में प्रवेश करती हैं। पति को थोड़ा बेचैन देख पूछती हैं—राघव, मुझे भी सूचना प्राप्त हुई है कि कल आपका राजतिलक होने वाला है। लेकिन इतनी बड़ी सूचना प्राप्त होने के बाद आपकी भंगिमा कुछ संतोषजनक नहीं दिख रही है। आप कुछ विचलित दिखते हैं। क्या बात है, आप क्या सोच रहे हैं?
रामजी कहते हैं—ठीक कह रही हो सीते! मैं आज अशांत हूँ। मेरा मन नहीं लगता। सीताजी ने कहा—ऐसी क्या बात है, जो आपको अशांत कर रही है? राम बोले—कल जो मेरा राजतिलक होने वाला है, यह असहज घटना है। मेरे मन को स्वीकार नहीं होता।
सीताजी ने कहा—राजकुल में, रघुवंश में बड़े पुत्र का राजतिलक होना तो हमारी परंपरा है, इसमें असहज घटना क्या है? आपको क्यों ऐसा लगता है?श्रीराम कहते हैं, हम चार भाई हैं। एक साथ जन्म हुआ, एक साथ पले-बढ़े, एक साथ हमारा विवाह हुआ। लेकिन राजतिलक मेरा? एक तो यह विचार मुझे असहज लग रहा है। इसके अतिरिक्त एक और बात मुझे बहुत बेचैन कर रही है। कुछ कातर आवाजें, कुछ दीन-हीन की पुकारें बार-बार मेरे मानस-पटल पर आकर टकराती हैं। विपरीत कर्तव्य सामने खड़े हो गए हैं। मेरे ही भीतर कुछ ऐसे प्रश्न खड़े हो गए हैं, जो मुझसे ही उत्तर माँग रहे हैं। क्या यह ठीक है?
जिस समय मैं विश्वामित्रजी के साथ वन में गया था, उस समय जो दृश्य मैंने देखे थे और जो चिंतन विश्वामित्रजी के साथ हुआ, आज मुझे लगता है, यदि राजगद्दी को स्वीकार कर लूँगा तो मैं विश्वामित्रजी को दिए वे सारे वचन पूरे नहीं कर पाऊँगा।
सीता, महल की चारदीवारी, राज्य की सीमा के बाहर जब मैं निकला, तब मैंने देखा, सामान्य लोग कैसा संघर्ष कर रहे हैं। ऋषि-मुनि हवन, जप, तप नहीं कर पाते। राक्षस, असुर जब चाहे तब उसको ध्वंस कर जाते हैं। उनके परिवार के सदस्यों को उठाकर ले जाते हैं। स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं। लोगों के सद्कर्म ध्वस्त हो गए और उस समय हड्डियों के ढेर दिखाकर मुझे विश्वामित्रजी ने कहा था—राम, तुम्हें इसका निदान निकालना होगा। असुरों को चुनौती देना होगी और धरती को उनके आतंक से मुक्त कराना होगा।
दो बातें एक साथ नहीं चल सकतीं सीता। रावण का राज्य और राम का राज्य एक साथ नहीं चलेगा। अभी तो दशानन का राज्य भी चल रहा है और दशरथ का राज्य भी चल रहा है, लेकिन अब नहीं चलेगा। यदि मैं अयोध्या की राजगद्दी पर बैठ गया तो राजभवन से रावण की सत्ता को चुनौती नहीं दी जा सकती। कुछ सत्ताओं को चुनौती देने के लिए मुझे अपने दायरे से बाहर निकलना पड़ेगा, मुझे अवध छोड़ना पड़ेगी। लोगों को निर्भय किए बिना, उनके भीतर आत्मविश्वास भरे बिना रावण से युद्ध नहीं हो सकता। यह सेनाओं का युद्ध नहीं होगा, यह जनसैलाब की जागृति का युद्ध होगा। रावण को ऐसे नहीं जीत सकते। इसके लिए मुझे बड़ी लंबी यात्रा करनी होगी।