जब रामजी की बात पूरी हो गई तो सीताजी उनसे वह प्रश्न पूछती हैं, जो हर जीवन में, हर दांपत्य में स्त्री और पुरुष का प्रश्न होता है। बार-बार यह प्रश्न उठा है, पुरुष कर्तव्य में जीता है, स्त्री भावनाओं में जीवन बिताती है। सीताजी पूछती हैं—आप बड़ी-बड़ी बात कर रहे हैं कर्तव्यों की। आप कहते हैं, रावण को पराजित करना है, हड्डियों के ढेर देखे आपने, दीन जन की कातर आवाजें आपको पुकार रही हैं, आपको बड़े लक्ष्य गढ़ना है और प्राप्त करना है, लेकिन कभी आपने सोचा कि एक राजघराने की स्त्री के लिए राजरानी बनना सबसे बड़ी उपलब्धि होती है, जो मुझे कल मिल रही है। आनेवाले समय में मेरी भी संतानें होंगी, वे बच्चे भी आपसे प्रश्न पूछेंगे, किस अधिकार से यह राजगद्दी छोड़कर जन-जन का संघर्ष कर रहे हैं? इस संघर्ष में हमारी क्या भूमिका है?हम कहाँ हैं?
भगवान् के सामने यक्षप्रश्न खड़ा है। कर्तव्य और भावनाओं का यह द्वंद्व वर्षों से चला आ रहा है। पुरुष बहुत दूर तक जाना चाहता है। स्त्री कहती है, जो करना हो, यहीं कीजिए। दार्शनिक लोगों ने तो कहा है, पुरुष के प्रयास टॉर्च की रोशनी की तरह हैं, वह दूर तक जाती है और स्त्री का आह्वान दीये की तरह होता है। एक कक्ष में जला लो पूरा रोशन हो जाएगा। टॉर्च का स्वभाव है दूर तक रोशनी फेंकने का और दीये का स्वभाव है सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करने का। आज यही द्वंद्व है।
सीताजी कह रही हैं—राजा बनकर यहीं राजपाट चलाइए। श्रीराम कहते हैं, मुझे अयोध्या से बाहर निकलकर बहुत कुछ करना है। सीता, जीवन अपना नहीं होता। जिस दिन ऊपर वाला जीवन देता है, आपके साथ कई लोग जोड़ देगा। तुम भी जुड़ी हो, और भी लोग जुड़े हैं। जीवन को फैलाना पड़ता है। मेरे साथ इस संघर्ष में तुम्हें भी मेरा साथ देना होगा। सीता, कुछ नहीं बोल पाईं। घोर संशय की रात थी वह। ऐसा अवसर कभी-न-कभी हर एक के जीवन में आता है, जब कोई कठोर निर्णय लेना होता है, उसे स्वीकार करना होता है।
रामजी सबको साथ लेकर चलने की कला में दक्ष थे। जानते थे कि लक्ष्य को पाने के लिए संघर्ष तो करना ही होगा। उस रात यदि राम ने निर्णय ले लिया होता कि राजगद्दी पर बैठ जाते हैं तो भारत का इतिहास कुछ और होता। लेकिन अयोध्या के राम ने उस दिन जो चिंतन किया, जो निर्णय लिया, उसने उन्हें जन-जन का राम बना दिया।
याद रखिएगा, कुछ युद्ध सामान्य बनकर ही लड़े जाते हैं। विशिष्टता से सदैव सबकुछ उपलब्ध हो जाए, ऐसा नहीं होता। कभी-कभी सामान्य रहकर भी विशिष्ट स्थितियाँ प्राप्त कर ली जाती हैं।
भगवान् राम सीताजी से कहते हैं, मैंने चिंतन तो कर लिया है, परंतु इसे पूरा कैसे करूँ, यह समझ नहीं आ रहा। पिताजी निर्णय ले चुके हैं। उन्हें किस प्रकार मना करूँ, यही भ्रम है सीते! तुम्हारे पास कोई मार्ग हो तो सुझाओ। स्त्री थोड़ी देर चलती है और थक जाती है। तब भी ऐसा ही होता था और अब भी वैसा ही है। सीताजी कहती हैं—जब आपने सोच ही लिया है तो मैं आपके साथ हूँ। इससे ज्यादा मैं और क्या कर सकती हूँ?
उसी समय राजमहल में कुछ उथल-पुथल आरंभ होती है। सबकुछ ठीक चल रहा था और अचानक दृश्य बदल गया। हमारे जीवन में भी कभी-कभी ऐसा हो जाता है। ऊपर वाला बड़ी अजीब सी पटकथा लिख देता है। सब ठीक चलता रहता है और एकदम से स्थितियाँ पलट जाती हैं।
कल राम के राजा बन जाने के हर्ष में पूरी अयोध्या प्रसन्न थी और घटना पलट गई। देवताओं को लगा, राम का राजा बन जाना उचित नहीं होगा। अगर ऐसा हुआ तो अवतार कार्य पूरा नहीं होगा। बुद्धि की देवी सरस्वतीजी से निवेदन किया—देवी, कुछ कीजिए। किसी की बुद्धि फेरिए। सरस्वतीजी सोच में पड़ गईं कि किसकी बुद्धि फेरी जाए? इस काम को बिगाड़ने के लिए कौन पात्र हो सकता है? तभी उनकी दृष्टि मंथरा पर पड़ गई। मंथरा कैकेयी की खास दासी थी। महल के क्रिया-कलापों की सारी जानकारी कैकेयी को दिया करती थी। सरस्वतीजी ने सोचा, यह कैकेयी के माध्यम से सही काम कर सकती है। बस, उसकी बुद्धि फेर दी।
मंथरा ने देखा, पूरे नगर में इतना आनंद क्यों मनाया जा रहा है? प्रयास किया तो कारण पता चल गया। उसका दिमाग उल्टा चलने लगा। कुछ विघ्न-संतोषी लोग उत्सव, आनंद देख ही नहीं सकते। उनको बिगाड़ करने में ही आनंद आता है। मंथरा ने विचार किया, राम राजा बनने वाले हैं, यह सूचना कैकेयी को मैं देती हूँ। चली कैकेयी के पास।
यहाँ सूत्र की बात देखिए। जीवन से जब सत्य जाता है, सत्य को जब तोड़-मरोड़ दिया जाता है तो वह कितना घातक होता है।
मंथरा कैकेयी के पास पहुँची, रानी कैकेयी ने देखा तो उसने चेहरा ऐसा बना लिया, जैसे कोई बड़ा भारी अन्याय, बड़ा नुकसान हो गया हो। कोई अनर्थ हो गया हो। कैकेयी ने पूछा—क्या हुआ मंथरा, इस तरह मुँह फुलाकर क्यों आई है? मंथरा जैसे लोग अपनी बात मनवाने में बड़े कलाकार होते हैं। रोते हुए आई, लेकिन कुछ बोली नहीं।
मंथरा एक वृत्ति है। और मंथरा वृत्ति भीतर से कैसे करतब दिखाती है, देखिए। कैकेयी पूछ रही है, मंथरा चुप है। बार-बार पूछ रही है, परंतु कैकेयी चुप की चुप। कैकेयी की चिंता बढ़ गई कि शायद कुछ उपद्रव हो गया है।
कुसंग आदमी को कहाँ ले जाकर पटकता है। इस प्रसंग में कैकेयी ने मंथरा का कुसंग किया था। इसलिए जीवन में कुसंग कभी मत कीजिए। कई ऐसे उदाहरण मिल जाएँगे, जिनमें कुसंग के कारण बड़े-बड़ों का पतन हो गया।
कैकेयी राम से बहुत प्रेम करती थी। मंथरा की चुप्पी के कारण जब कुछ अनिष्ट की आशंका हुई तो देखिए, पहला ही प्रश्न क्या पूछती है—बोल, राघव कुशल से तो है?राम ठीक तो है?फिर पूछा—महाराजा ठीक हैं, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न सब ठीक तो हैं?
मंथरा जैसे लोग घुमा-फिराकर बोलने में माहिर होते हैं। उसने बोलना शुरू किया—रानी, आप पूछ रही हैं, राम ठीक हैं?बात यह है कि आज राम तो ठीक हैं, परंतु इसके अलावा अवध में कुछ भी ठीक नहीं है। आपको मालूम भी है, राजसभा में क्या हुआ है? अरे, राजा ने राम के राज्याभिषेक की घोषणा कर दी है।
देखिए, मंथरा का उद्देश्य था कैकेयी को झुँझलाना, लेकिन राम के राज्याभिषेक की बात सुनते ही कैकेयी प्रसन्न हो गई। अरे मंथरा! तू क्या बोल रही है?मेरा राम राजा बनने वाला है?मेरा तो स्वप्न ही यह था। तूने इतनी अच्छी सूचना दी है। बोल क्या चाहिए?आज तो तू जो माँगेगी, मैं दे दूँगी। इससे अच्छी सूचना मेरे लिए और क्या हो सकती है?
कुवृत्ति या लोभ की वृत्ति कभी निराश नहीं होती। कुछ-न-कुछ तर्क देती ही रहती है। मंथरा कहती है—अरे रानी, थोड़ा सा होश में आइए। अच्छा बताइए, आपको यह सूचना कब प्राप्त हुई? कैकेयी बोली—अभी-अभी जब तूने बताया।
मंथरा तो किसी भी तरह अपनी कुटिल चाल में सफल होना चाहती थी। उसने सत्य को असत्य के जामे के साथ प्रस्तुत करना शुरू किया। बोली—चौदह दिनों से उत्सव मन रहा है। बोल तो सत्य रही थी कि निर्णय हो गया है, लेकिन उसमें असत्य यह पिरो दिया कि चौदह दिन पहले ही हो गया।
रानीजी, आपको पता ही नहीं लगा। आप तो कहती थीं, राजाजी आपको बड़ा स्नेह करते हैं, तीनों रानियों में सबसे ज्यादा आपको चाहते हैं। इतने बड़े निर्णय की आपको सूचना तक नहीं दी गई, इसका अर्थ समझती हैं आप? कैकेयी कहती हैं—मंथरा, महाराज बहुत व्यस्त रहते हैं, भूल गए होंगे बताना। कोई बात नहीं, मेरी इच्छा तो पूरी हो गई।
मंथरा को लगा कि रानी समझ ही नहीं रही है। बोली—रानी, दिक्कत यह नहीं है कि राम राजा बन रहे हैं। कोई भी राजा हो, मुझे क्या फर्क पड़ता है। मैं तो दासी की दासी रहनेवाली हूँ। मुझे तो चिंता आपकी हो रही है। आपके विरुद्ध बहुत बड़ा षड्यंत्र चल रहा है। चर्चा यह चल रही है कि राम राजा बनेंगे तो कौशल्याजी महारानी बन जाएँगी, राजमाता हो जाएँगी। सत्ता माँ-बेटे के पास चली जाएगी। आप और भरत उनकी सेवा में लगा दिए जाएँगे।
कैकेयी बोलीं—यह तूने कहाँ से सुन लिया? मैं नहीं मानती कि अयोध्या में कोई षड्यंत्र रचा जा रहा है। ये सब व्यर्थ बातें हैं और मैं इन पर विश्वास नहीं करती। और तू कौशल्या के विषय में ऐसा कह रही है? जिसने संसार में राम जैसे पुत्र को जन्म दिया हो, मेरी बड़ी बहन के समान कौशल्या मन में ऐसा विचार ला ही नहीं सकती। अब उनके बारे में कुछ नहीं बोलना। वरना दंड दूँगी।
इसको लोभवृत्ति कहते हैं। हमारे भीतर की लोभवृत्ति, मंथरावृत्ति जब सक्रिय होती है, तब इसको कितना ही दबाओ, वह अपना काम करती ही रहती है। अब कहती है—सँभल जाओ रानी, कौशल्या के राजमाता बनते ही आप दासी बना दी जाओगी। होश में आओ। आप तो दिनभर महल में आराम करती रहती हो। आपको मालूम ही नहीं, क्या षड्यंत्र चल रहा है।
जब यहाँ भी सफलता नहीं मिली तो एक और दाँव चला। कहती है—मैंने ज्योतिषियों से भी पूछा है। उन्होंने कहा है, सत्ता राम को मिलेगी, पर तेरी रानी मुसीबत में पड़ जाएगी। रानी को लगा, पता नहीं क्या मुसीबत आएगी। आश्चर्य से पूछा—क्या कहा ज्योतिष ने, मुझ पर कोई मुसीबत आएगी? और अक्ल लगाई और बोलीं—हाँ, ऐसा ही कहा है। परंतु यह भी कहा है कि यदि तेरी रानी तेरे कहने में चली तो मुसीबत से बच जाएगी।
देखिए, इस प्रसंग में कुसंग, कुवृत्ति, लोभवृत्ति, घरफोड़ू वृत्ति, दूसरों को तोड़ने की जो वृत्ति मन में होती है, वह किस-किस प्रकार से काम करती है। मंथरा बोली—आप हमेशा राम-राम करती रहती हो, तुम्हें मालूम क्या है कि कौन है राम? रानी बोलीं—अब बस कर। तू नहीं जानती राम मुझसे कितना प्रेम करता है। जब भी अयोध्या में रहता है, मेरे महल में अधिक रहता है। मैं तो भगवान् से प्रार्थना करती हूँ कि अगले जन्म में मेरी संतान राम ही हो।
बस, मंथरा ने बात पकड़ ली। समझ गई कि रानी के मन में एक पीड़ा है कि अगले जन्म में राम उनका बेटा बने। तपाक से बोल पड़ी—आप कह रही हैं, अगले जन्म में राम मेरा बेटा हो, परंतु आप राम का स्वभाव नहीं जानती। इस जन्म में कौशल्या का बेटा है तो आपको अधिक चाहता है। अगले जन्म में आपका बेटा बनेगा तो किसी और को अधिक चाहेगा। यह किसी का सगा नहीं हुआ।
मैं फिर भी कहती हूँ रानी, कि राम के राजा बन जाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं है, पर मुझे लगता है, उसके बाद कहीं आपको कारावास नहीं हो जाए, भरत को दंड न मिल जाए। मैं सब देख सकती हूँ, परंतु तुम्हें सेवा करते नहीं देख सकती।
कैकेयी बोली—तू कहना क्या चाहती है? मंथरा ने कहा—मैं जो कह रही हूँ, ध्यान से सुनो। राम को राजा मत बनने दो। नहीं तो बहुत बड़ा अनर्थ हो जाएगा।