परिश्रम को अपना स्वभाव बना लेंगे तो सुख-दुख ठीक से देख सकेंगे

यह बहुत अधिक परिश्रम का दौर है। आज हर मनुष्य कुछ ऐसा पाना चाहता है जिससे सुख प्राप्त हो, इसलिए परिश्रम भी करता है। लेकिन यह याद रखें कि यदि सुख की आकांक्षा है तो दुख भी पीछे-पीछे आ रहा है। सावधानी नहीं रखी तो सुख की जितनी उम्मीद करेंगे, उदासी उतना ही आपको घेर सकती है। जिस चाहत में हम परिश्रम कर रहे होते हैं, जरूरी नहीं कि वैसा जीवन में घट ही जाए।

जिंदगी के गणित बिलकुल अलग होते हैं। यहां बहुत कुछ अदृश्य है, अनिश्चित है। जैसा हम सोचते हैं और उसके लिए जिस तरह से कर रहे हैं, जरूरी नहीं कि वैसा ही हो। इसलिए अपने परिश्रम के पीछे दुख में सुख ढूंढते रहिएगा और सुख में दुख की अनुभूति करते रहिएगा। यदि परिश्रम को केवल सुख से जोड़ा तो वह श्रम जो पूजा बनना चाहिए, वासना बन जाएगा।

जैसे शृंगार करने वाले लोग आईना देखते हैं, ऐसे ही परिश्रम करने वाले ‘क्या मिला’ देखते हैं। मेहनत जरा सी करेंगे और बार-बार देखेंगे कि मुझे क्या मिला? ऐसे में आप परिश्रमलोलुप हो जाएंगे। फिर लगेगा मेरे परिश्रम को प्रशंसा मिले और नतीजे में परिश्रम आत्महिंसा बन जाता है।

परिश्रम को आदत नहीं, स्वभाव बनाइए। यदि परिश्रम स्वभाव बन गया तो फिर उसके पीछे आने वाले दुख या सुख को ठीक से देख सकेंगे। फिर जो भी मिलेगा, एक बात का संतोष होगा कि हमने परिश्रम पूरी ईमानदारी से किया। यही बड़ी उपलब्धि होगी..।


parishram ko apna swabhav bna lenge to sukh dukh ko thik se dekh sakenge.

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