जिंदगी के सफर में बहुत सारी चीजें खो जाती हैं और कई मिल भी जाती हैं। लेकिन इस सफर की शुरुआत में ही हमारे साथ एक चीज ऐसी आई थी जिसे हम ही कहीं रखकर भूल गए। वह है हमारी खुशी, हमारी प्रसन्नता। जब हम श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाते हैं तो एक नारा लगाया जाता है- ‘नंद के आनंद भयो..। ऐसा नहीं बोला जाता कि नंद के लाला भयो..। उस लाला को आनंद माना गया है और जैसे-जैसे भगवान कृष्ण की बाललीला आगे बढ़ती है, हमें उनके व्यक्तित्व से समझ में आ जाता है कि ये आनंद बिखेरने के लिए आए हैं। लेकिन कमाल यह कि उन्होंने एक कर्मयोगी के रूप में आनंद बिखेरा। जब वे गीता का ज्ञान दे रहे थे तो एक ज्ञानयोगी खुश रहकर कैसे अपने विचारों को वाणी दे सकता है, यह सिखा गए। दुनियाभर की रिश्तेदारी निभाने के बाद भी कभी चेहरे पर झल्लाहट नहीं आई। इस बात के लिए शत्रु भी इनकी प्रशंसा करते थे कि कुछ ऐसा है कृष्ण में कि उनके साथ यदि थोड़ी देर खड़े रह लो तो फिर जो वो चाहते हैं, हमें करना पड़ता है। वह कौन-सा आकर्षण था? वह केवल सम्मोहन नहीं था, कोई जादू नहीं था। दरअसल, कृष्ण का रोम-रोम प्रसन्नता से भरा हुआ था। इतनी खुशी थी उनके भीतर कि कोई भी काम करने से पहले यह तय कर लेते थे कि अपनी आंतरिक प्रसन्नता को नहीं खोना है। जन्माष्टमी का उत्सव हमें यह बताता है कि आसपास दुख का, परेशानियों का भले कितना ही अंधेरा छाया हुआ हो, जीवन में खुशी का, आनंद का प्रकाश फैलता रहना चाहिए।
janmashtmi batati hai ki aanand ka prakash felte rhna chahiye.